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प्रेम का असफल होना एक सिद्धांत है - देवांश एकांत की कविताएं


देवांश एकांत की कविताएं

1. तुम्हारा दुःख और मैं


तुम्हारी आँख से ढलका आँसू

पृथ्वी पर गिरते ही बन गया

हरसिंगार का फ़ूल


मैं यह देख उत्सुक होता

या तुम्हारी वेदना पर मूक

कभी इसका सटीक निर्णय ना कर सका


तुम किसी अव्यक्त दुःख की

जीती जागती मूर्ति निकली

जिसने किसी संबल की

कभी माँग नही की


आँखों की नमी को

मुस्कुराहट की लौ में दीप्त करना

मैंने तुमसे सीखा


कितनी बहादुर हो तुम !

अपनी कविताओं में लिखती हो

तुम्हें प्रेम रूपी बारिश से भय लगता है


और इसके बावजूद

प्रेम की पहाड़ी के मध्य स्थित ज्वालामुखी में

पुनः विलीन हो जाती हो


यह दृश्य देख

किसी उत्साहित दर्शक की तरह

मेरा हृदय सराहना में पीटता है तालियाँ।


जैसे ग्रह नही अलग हो सकते

उनके मध्य उपजे गुरुत्वाकर्षण से

शायद उसी तरह मनुष्य नही

अलग हो सकता प्रेम से


प्रेम हमारा गुरुत्व है

जीवन की हरीतिमा की ओर खींचता हुआ


और तुम इस वक्तव्य का

सबसे सुंदर उदाहरण ।


किसी दूजे के प्रेम प्रसंग पर

तुम्हारी आँखों से बहे हैं हर्ष के अश्रु


किसी और के विरह पर तुम विचलित हुई हो

पूरी आत्मीयता के संग


इस दुनिया में जहाँ हर कोई

अपने-अपने सुखों के बंदर बाट में लगा है


वहाँ तुम अन्य के दुःखों में

हिस्सा लेती हो किसी तृप्ति की तरह


भौतिक वाद की भौंडी प्रतिस्पर्धा से बाहर

अपनी संवेदनाओं की आभा लिए खड़ी हो तुम


क्या तुम जानती हो ?

तुम्हारे आगे के दो दांतों के मध्य

उस छोटी सी जगह से उदय होता है चंद्रमा

जो बिखर जाता है अंधेरों में अपनी चाँदनी लिए


किसलिए करती हो दुःख का पोषण ?

जीवन समुद्र में मुझ जैसे पथिक के लिए

एक लाइट हाउस हो तुम


अजब अभागा हूँ जो तुमसे

तुम्हारे होने के सौभाग्य को

कभी व्यक्त नही कर पाता


हर बार

हर जगह

हर भेंट पर

मुझे डंक सा डसता है

तुम्हें एक शिला सा देखना


तुम्हारी आँखों के पीछे

गरजते वेदना के बादलों को

बरसने से रोक न पाना एक त्रासदी है


तुम एक यात्रा हो

जिससे होकर ही गुज़रेगा जीवन

जिसे प्रेम आएगा ढूँढने खोज की तरह

मानों अपने अस्तित्व पर भरोसा और तटस्थ करने


प्रेम संजोएगा तुम्हें

अलौकिक उपलब्धि की तरह,


और छुपा लेगा क्षितिज में

घुलती हुई सूर्य की लालिमा सा।



2. अपवाद या सिद्धांत


अंतर्मन के बरगद से

तुम्हारी स्मृतियों की

टहनियाँ काटते-काटते

न जाने कितने वर्ष गुज़र गये


खिड़की से बाहर

पृथ्वी की परिक्रमा करता चंद्रमा देख सोच रहा,

कितनी समानता है स्मृतियों और चंद्रमा में


जिस प्रकार कालांतर से

चंद्रमा करता है पृथ्वी की परिक्रमा,

उसी प्रकार स्मृतियाँ करती हैं

प्रेमियों की परिक्रमा,


प्रेम यथार्थ का वह सिनेमा घर है,

जिसमें प्रवेश पश्चात कोई निकास नही


मेरे हृदय के किनारों पर

बीते कल के पर्दे उठते-गिरते ही रहे


कभी राह में प्रेमी युगलों को देख

यकायक स्मरण हो आता तुम्हारी

सेमल सी हथेलियों का स्पर्श


कभी मध्यरात्रि में स्वप्नों की नाव

ले जाती तुम्हारे गाँव की ओर, और

आँख खुलते ही पाता समय को उपहास करते


एक रोज़ जब रेलगाड़ी रुकी

तुम्हारे शहर के स्टेशन पर

मैं औंधे मुँह जा गिरा था

वेदना की पटरी पर


और आज

मध्यरात्रि में इतने वर्षों बाद

अचानक आए तुम्हारे संदेश ने

स्मृतियों को दे दी है अनियंत्रित गति


तुम्हारे जीवन में अब कोई और है,

तुम तक पहुँच सकने वाले मेरे कदम,

अब जम चुके हैं असहायता से,


इसी दौरान सोच रहा कि

कितने शून्य हो चुके हैं हम

आत्मीय सम्बंधों की दुनिया में

हम जिन मापदंडों को धुरी बना

पूर्ण करते हैं क्षणभंगुर तृप्तियाँ

अंततः उसी मापदंड का होते हैं शिकार और

करते हैं प्रश्न कि इस तृप्ति में यह अतृप्ति क्यूँ ?


मैं जो एक ठूंठ से अधिक कुछ नही

अक्षम हूँ कोई प्रतिक्रिया देने में और

बस दौड़ रहा हूँ इस असमय आगमन से दूर


मनुष्य तैयार है प्रेम करने को,

मनुष्य तैयार है प्रेम में रहने को,

मनुष्य तैयार है प्रेम से भागने को,

मनुष्य नही तैयार है तो सिर्फ़

प्रेम के परिणाम झेलने को,


परिणामस्वरूप टूटतें हैं स्मृतियों के बांध,

कहीं भी-कभी भी,


द्वन्द की लहरें बहा ले जाती हैं हमें

और फ़ेक देती हैं विरह के बंदरगाह पर


जहाँ से निकल पड़ते हैं हम

जीवन समुद्र में अपनी-अपनी कवितायें ढूँढने

अनुभूतियों की नाव पर सवार हो…


और निकालते हैं निष्कर्ष कि,

प्रेम का सफल होना एक अपवाद है

और प्रेम का असफल होना एक सिद्धांत ।।


3. तुमसे मिलना


तुमसे मिलने से पहले तुमसे मिलने वाले दिन अन्य सभी क्रियाएँ छुट्टी पर चली जाती हैं एक ध्वनि उफनती है भीतर गिरजाघर के पवित्र स्वर सी जो पूरी देह में रेंगती हुई तुम्हारे पास पहुँचने की इच्छा को तीव्र करती है

एक वैज्ञानिक जैसे करता है बार-बार अपने प्रयोगों का निरीक्षण मैं भी सहेज सहेजकर रखता हूँ अपने हाव-भाव तुमसे मिलने से पहले

समय जोंक लगता है घड़ी आलसी प्रतीत होती है दरवाज़े पर जा जाकर इस तरह लौटता हूँ मानो तुम अभी प्रकट हो जाओगी हवा के कैनवास पर

जाने कितनी आशंकाएँ घेर लेती हैं मन को अकारण

शायद आशंकाओं और प्रेमियों का जन्मों पुराना रिश्ता है

युद्ध, कर्फ़्यू, महामारियाँ दंगे और सरकारी गतिविधियाँ आकर डराने लगती हैं इस प्रेमी मन को चेताने लगती हैं जल्द से जल्द मिलने को

देखो न ! पुनः आ पहुँचा हूँ समय से पहले समय से लड़ते तुमसे मिलने

तुम कहाँ पहुँची ?


तुम्हारे संग होते हुए मेरे पास धरती के सारे रंग होते हैं मैं कहीं भी सौंदर्य देख सकता हूँ

दृश्यों में कला की मात्रा अपने आप बढ़ जाती है तुम्हारी आँखों की बनावट मुझे वर्ली और मधुबनी की याद दिलाती है

बढ़ता है विश्वास इस बात पर कि सागर को भी अँजुरी में बाँधा जा सकता है प्रेम की दुहाई देकर

रोका जा सकता है क्रूरता को प्रेमियों की हथेलियाँ संग लाकर

तने वृक्ष झुकाये जा सकते हैं दूब के काँधे तक समर्पण के भाव से

तुमने जब छुआ मुझे तो मैंने जाना कि दो जोड़ी हाथ सिर्फ़ आलिंगन ही नहीं बांध भी बन सकते हैं जीवन की बाढ़ में

मुझे नही है ज्ञान पुरातत्व का मैंने नही देखी हैं हज़ारों वर्ष पुरानी मूर्तियाँ या लोक कथाओं से गढ़ी गुफ़ाएँ पर तुम्हारी मुस्कान के स्पर्श से मेरे मन की देह में होते कम्पन से मैं दावे के साथ कह सकता हूँ दुनिया में यदि कुछ प्राचीन है तो वह है प्रेम

शहर के कैफ़े में जब तुम घबराहट में देखती हो इधर-उधर लोगों के हाव-भाव को यह दृश्य मुझे तुम्हारे भीतर की औरत के और पास लाकर खड़ा करता है कैसे तुम्हारे ‘स’ में स्वयं से पहले समाज आता है घर परिवार आता है और मेरे अंदर का लड़का आदमी में परिवर्तित हो जाता है

बस एक चुप संगीत बजता रहता है मेरा बहुमूल्य समय बीतता रहता है हाफ़िज़ हाफ़िज़ होता रहता हूँ मैं और हर बार चूक जाता हूँ तुम्हें बताने से कि इस भीड़ भरे नगर में मेरी सूखती आकांक्षाओं पर नमी का छींटा है तुम्हारा प्रेम।


तुमसे मिलने के बाद एक स्थिरता

मन की नाव किनारे आ लगी हो हृदय की लहरें घुलती हुईं मुलाक़ात की स्याह रोशनाई में

आह ! अनंत स्मरण दृश्यों का स्निग्ध क्षणों की पुनरावृत्ति विपुल अंतरिक्ष सी भावनायें जिन्हें समेटने में अक्षम मेरा एकांत

मीठी स्मृतियों से हृदय चींटी हो चला है

एक हल्कापन है भीतर मानो तुमसे मिलने से पहले खाड़ी देश की ज़मीन से निकला कीच द्रव्य था जो अब परिष्कृत हो तैयार है किसी भी वाहन में जान फूंकने को

हवा सी हो गयी है देह मैं चिड़ियों की उड़ान बन सकता हूँ मैं तपती झोपड़ी की ठंडक बन सकता हूँ मैं पवनचक्कियों की ऊर्जा हो सकता हूँ मैं किसी ग़ुब्बारे में हीलियम हो सकता हूँ मैं वाद्य यंत्रों से गुज़रते हुए नयी धुन का सर्जक हो सकता हूँ अब मैं कोई भी विचार हो सकता हूँ

दुनिया से थोड़ी दुनिया ले सकता हूँ दुनिया को नयी दुनिया दे सकता हूँ ।


 


Devansh Ekant Poems

देवांश दीक्षित उन्नाव, उत्तर प्रदेश से हैं और पेट्रोलियम विश्वविद्यालय, देहरादून से केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। मूल रूप से हिंदी काव्य और गद्य लेखन में सक्रिय। कविताओं के अनुवाचन हेतु ‘Ekaant’ नाम से पॉडकास्ट चैनल भी चलाते हैं।


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