तुम्हारा जाना
तुम्हारा जाना जाना नहीं था
एक जगह थी जहाँ मैं बार-बार लौटता रहा
बार-बार लौटती रही मुझमें साँस
मैं लौटा आधा
आधा भरने के लिए
पूरे प्रेम के साथ
मैं वापस होता रहा
चित्रों के साथ
पहले मुझे प्रेम हुआ
प्रेम की समझ उसके बाद
मैं लौटता रहा भावना-भंवर में
मुझे लौट जाना था यथार्थ के साथ
तुम्हारा जाना आधिकारिक रहा
तुम तो बहुत पहले हीं जा चुकी थी
जिसे मैने प्रेम किया
वह अब तक मेरे पास है
तुम्हारा जाना
तुम्हारा जाना नहीं था
मेरा जाना था
जहाँ से फिर मैं कभी न लौटा।
कल्पनाओं के पानी से मुँह धोते हुए
पानी ने लौटा दिया मेरा ठंडा हृदय
हवा लौटा गई सन्नाटा
मिट्टी में बरबस उंगली फिराते
रेत ने लौटाया चेहरा तुम्हारा
सीढ़ी पर गुनगुनाते हुए
पीपल ने लौटाए गीतों के बोल
कहीं और लौटाने के लिए
दीवारों ने लौटाई साँझ
कहीं और बिताने के लिए
तुम्हारी अनुपस्थिति ने लौटाया खालीपन
अकेले काटने के लिए
रात मेरे भीतर अँधेरा लौटा गई
नींद लौटाती रही है आना तुम्हारा
तुम मेरी प्रतीक्षा कैसे लौटा पाओगी?
आश्रय
मेरे पास खिलाने को कुछ नहीं है
जो तुम्हारा पेट भर सके
शिवाय अन्न के
भूख है तो
आओ! मेरी थाली में बैठ जाओ।
कहने को
दो शब्द भी नहीं है,
तन के भीतर
कपास का खेत है
बारिश को रोको मत।
माथे की रेखाएँ दिखाओ
कुछ चिपका हुआ है
क्या इन्हें साफ़ कर दूँ?
आँखों के नीचे रातें इकट्टी हैं
मेरी गोदी में नींद छिटका दो।
अकर्मण्यता
चारो ओर बस चुप्पी है
चुप्पी में तमाम शब्द
मोथा घास जैसे बेवजह उग आये हैं
उगना बेवजह नहीं होता
जहाँ कुछ नहीं था वहाँ फिर भी कुछ था
जहाँ मैं बचा नहीं वहाँ भी मैं कुछ बचा रहूँगा
मैं जीवन को पढ़ने में व्यस्त हूँ
जहाँ एक बच्चा रोज़ मेरी किताब लेकर भाग जाता है
नाम का कीड़ा अब नहीं काटता
ठंडी राख पर हाथ सेंक लिए हैं
पढ़ने की टेबल पर सोते हुए और
बिस्तर पर देखते सपने
पाया हुआ सब जाता रहा है
लौटता हुआ
टूटे भोर के सपने-सा
मैं बिना खोल का शान्ति का बिछौना बिछा
ख़ामोशी की चादर मुंह पर डाल
अकर्मण्यता का तकिया लगाकर सोता हूँ
नींद की सलाई और रात के ऊन से बुनता हूँ
भोर के सूरज का स्वेटर
कपकपाती ठंड में भी मैं नहीं चाहता
शब्द सूखे नहीं
जम जाए
कुछ न करने से मुझे डर लगता है
कुछ न करने से डर बढ़ता रहता है
जैसे घूर में राखी और खेत में गोबर
कुछ न करते हुए भी मैं कल्पना करता हूँ
कुछ करने वालों के लिए
कुछ छोड़ जाता हूँ।
किसी के होने की अनुगूँज
प्रतीक्षा करते हुए पत्थर हुआ जा सकता है
पत्थर पर बैठ पत्थर नहीं हुआ जाता
ईश्वर बना जाए शायद।
किसी को पाने और खोने के बीच
किसी का होना छूट जाता है और
जो किसी का नहीं हो पाता वह सभी का हो जाता है।
'सभी का होना' दूसरों के लिए
उपलब्धि की तरह दिखाई पड़ता है पर
ऐसा होने पर भी किसी एक के होने का कठफोड़वा
चील की तरह मंडराता रहता है
और मौक़ा देखकर चोंच मारने लगता है।
किसी एक का न होने पर भी
थोड़ा-सा उसका होना रह जाता है
जो जेट विमान से निकले धुएँ की तरह
उसमें वापस नहीं जाता।
डाकिया रोज़ विभिन्न पतों पर चिट्ठी देता है
एक पते की चिट्ठी वह देना चाहता है
एक पते की बख़्शीश वह ले नहीं पाता
एक दरवाज़े से
किसी के होने न होने की अनुगूॅंज
उसे सुनाई देती है
खिड़कियों से झाँकती आँखें
अब खिड़कियाँ हैं
खिड़कियों के परदे खुलते हैं
पर रंगमंच खाली दिखता है।
परदे पर आने की टोह छपी है
उसका हिलना भी चाँद के आकार को बढ़ा सकता है
पर परदे को हटाकर कभी कोई नहीं आया
दोपहर की गगरी ख़ाली पड़ी है
शाम पानी भरने जाती है और गगरी डूबती हीं नहीं
दिन रात से अतिव्यापित होकर
रोज़ प्यासी हीं लौट जाती है
ठूंठ रोते है परिंदों के लिए
अस्तित्व खो चुकी नदी
नावों के लिए
अकाल रोता है बारिश के लिए
पर नहीं रो पाती काठ की आंखें
प्रतीक्षा एक ऐसी जगह है
जहाँ हम पूर्णतः अकेले होते हैं।
परिचय :
उज्जवल शुक्ल
जौनपुर, उत्तर प्रदेश