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बहुत कम दुनिया — आसित आदित्य की कविताएँ


Aasit Aditya

आसित आदित्य की इन कविताओं में पूर्वांचल का परिवेश गहराई से रचा-बसा है। इन कविताओं में स्मृति और वर्तमान का एक अनूठा संगम उपस्थित है। नदी एक केंद्रीय प्रतीक के रूप में बार-बार आती है। यह नदी कभी स्मृतियों की है, कभी जीवन की निरंतरता की, और कभी मनुष्य की आंतरिक यात्रा की। पानी का यह प्रवाह कविताओं को एक विशेष लय प्रदान करता है। अपने परिवेश की मिट्टी से उपजी ये कविताएँ स्थानीय अनुभवों को इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि वे सार्वभौमिक हो जाते हैं। त्यौहारों की उदासी हो या ऋतुओं का बदलाव - ये क्षण किसी एक जगह या समय के नहीं रह जाते।


इन कविताओं की एक ख़ास विशेषता है कि ये दुख को बहुत सूक्ष्मता से चित्रित करती हैं। यह दुख कभी सीधे-सीधे नहीं कहा जाता, बल्कि छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से व्यक्त होता है। "सबसे अधिक" जैसी कविताएँ इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे साधारण वाक्यों में असाधारण पीड़ा छिपी हो सकती है। कविताओं की भाषा सरल है, लेकिन उनके अर्थ जटिल हैं। वे एक साथ कई स्तरों पर काम करती हैं - व्यक्तिगत स्तर पर भी और सामाजिक स्तर पर भी। इनमें स्मृति, प्रेम, विरह, और जीवन की निरर्थकता जैसे विषय इस तरह गूँथे गए हैं कि वे एक दूसरे को गहरा करते चलते हैं।


- शिवम्



बची रहे नदी


स्मृतियाँ नदी हैं

बहती रहती हैं निरन्तर


कभी अंजुरी में उठाता हूँ जल

छिड़क लेता हूँ ऊपर

कभी लगा लेता हूँ डुबकी


कई दफ़ा होता है यूँ भी

कि निकल जाता हूँ कतरा कर


हालाँकि बचते–बचाते हुए भी

घेरे रहती है मन को

नदियों के सूख जाने की चिंता



बहुत कम दुनिया और बहुत सारा गिल्लो के लिए


तब तुम मेघ थी

मैं था उजड़ा दरख़्त एक

एक फुहार की लगाई थी गुहार


एक दफ़ा मछली था

छटपटाता था

जल बिन

जल के बाहर

तब तुम नदी पर पानी भरने आया करती थी

टूटते स्वर में था कहा :

डाल दे एक अंजूर जल मुझपे


चौरासी लाख़ योनियों का स्वाद चखा

दुर्भाग्य था, मानुष बना

तुमसे किया प्रेम

और प्रेम के बदले प्रेम न माँगा

महज़ अपने प्रेम का सम्मान चाहा था तुमसे


भवचक्र में उलझा हुआ हूँ

पुनः लूँगा जन्म

अबकी समन्दर बनूँगा

तुम्हारे द्वारा किया गया विषाक्त

तुम्हारे अनन्त इन्कार से

भरा लबालब



सबसे अधिक


रोटी की अंतड़ियों में रेज़ा–रेज़ा हुए सबसे अधिक सपने।


नौकरी बचाने के चक्कर में सबसे अधिक आत्मसम्मान पर लगे घाव।


सबसे अधिक तब आई जाने वाली की याद जब सबसे अधिक शांत थे रस्ते।


क्रोध ने सबसे अधिक उगलवाया वह, जो मैं उसके बारे में सोचा करता था।


जब कैंसर ने छीन लिया उससे वज़न उसका तब सबसे अधिक भारी थी दादी।


जब प्रेम में था, तब लिए सबसे अधिक अव्यवहारिक निर्णय।


शराब ने, आत्मा के जिस कमरे में बैठा था जेंटलमैन, उस कमरे का परदा सबसे अधिक लहराया।


पीड़ा का सबसे सघन क्षण गुज़र जाने के ठीक बाद बहे सबसे अधिक आँसू।


सबसे अधिक स्थान घेरा स्थान न घेर पाने की अपनों की असमर्थता ने।


सबसे अधिक कविता लिखी गई तब जब दुःख सबसे अधिक न था, ना ही सबसे कम।



सुझाव


त्योहार आने के पहली ही जिन्हें

घेर लेती है

त्योहार के बीत जाने के

ठीक बाद की निर्जनता

वे गढ़ते हैं अपना मिथक

अपने चिन्ह

अपना भगवान

मनाते हैं अपना त्योहार


ऐसे लोगों से बचना, दुनिया

तुम ठहरी माटी, वे ढीठ कुम्हार!



पूरे चाँद और विदा की रात


अधिक मत सोचो

अपनी राह धरो


माँगती हैं समय

घटनाएँ बड़ी


थोड़ा समय दो मुझे

मैं स्मृतियों को देता हूँ


धीरे–धीरे जन्मती हैं नई भावनाएँ

धीरे–धीरे पुरानी भावनाओं का दाह संस्कार होता है

धीरे–धीरे वह वक़्त आता है जब

जाने वाले के लौट आने का भय

हर रात देह से चिरई भर माँस खाता है



इन दिनों


रात के सन्नाटे का तार

टेरती है एक गुनगुनी हँसी


स्मृतियों की रस्सी पर

चहकदमी करता है रतजगा नट


रात :

नाउम्मीदी से लिथड़ी प्रतीक्षा

से भारी है


दिन :

रोटी खा जाती है



नदी तीरे यात्रा


देर रात पीता हूँ पानी

कमरे में

हरहराती बहती एक

नदी घुस आती है


मैं उसके किनारे चलता हूँ, चलता हूँ

चलता ही चला जाता हूँ


यहाँ खेलते हैं

चमकती काली पीठों पर अपने

सूरज बाँधे मल्लाहों के बच्चे


आगे बैठे हैं

चिपक कर बैठे कई–कई जुड़वा जिस्म

बीच–बीच इक्का–दुक्का जिस्म की

चमक जाती है आत्मा


थोड़ा और आगे

रोटी की आँच पर सुकून भूनते

अधेड़ नाविक, मछेरे


अंततः

यहाँ होता है पिंड दान

लौटते हैं पितर

मंत्रोच्चार!

यहीं यात्रा समाप्त हो जाती है


जिस दिशा है अंत, धरता हूँ पग

नदी, नदी के पास लौट जाती है



अक्टूबर  (i)


दुबई या सऊदी गए

बाप, चाचा या भाई की तरह

बहुत–बहुत दिनों बाद लौटता है अक्टूबर


बरामदे की चौकी

परदेसी सामानों में डूब जाती है


बच्चे थाम त्योहार अपने

दौड़ जाते हैं

पियराए पानी भरे धान के खेतों की मेंड पर


व्यस्क लौट जाते हैं अपने–अपने काम

अपनी जेबों में भर

पीली धूप

ओस

सर्दी की एक फाँक

शिउली के झरे फूल

और डेढ़ मन दुःख



अक्टूबर (ii)


तुम्हारे दरवाज़े

भर रात

झरते हैं हरसिंगार


मेरे चौखट

गिरती है ओस


फिर क्यों

कहती हो तुम

इस फागुन लहराएगा

मन में सरसों

फिर क्यों

हो सोचती

एक ही भूमि बसते हैं दोनों?



बात केवल इतनी–सी थी


बात केवल इतनी–सी थी

कि बाएँ स्तन में थी एक गाँठ–सी

जिसे सरसों बराबर उजली मीठी गोलियों से

ठीक करने की जुगत में लगा था एक झोलाछाप डॉक्टर


बात केवल इतनी–सी थी

कि सहेली के हाथ से लग टूट गई थी नई कलाई घड़ी

बाप के थप्पड़ से हो आहत

मामा गाँव जाने के लिए एक कोठेवाली ने धर ली थी बस


बात केवल इतनी–सी थी

महज़ इतना रहा कटी कलाइयों का इतिहास

कि दसवीं के अंत तक आते–आते

मन में बेमतलब विचारों का चलता रहा दोहराव


बात केवल इतनी–सी थी

कि घर में, जग में, जीवन में जो सब कुछ

इतना गम्भीर, इतना विकराल हुआ घटित

शुरू हुआ था इससे महज़ कि

बात केवल इतनी–सी थी!


 

कवि परिचय :


आसित आदित्य

गाज़ीपुर उत्तर प्रदेश में जन्म

फ़िलहाल मिर्ज़ापुर में डाक विभाग में कार्यरत

पत्रिकाओं व वेब पोर्टलों पर कविताएँ व हिंदी अनुवाद प्रकाशित

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