रंगलाल भील
मैं रंगलाल भील
परिचय में इतना कहकर रुक गया रंगलाल भील
मंच पर पहली बार आया रंगलाल भील
कौन सी बात को कैसे कहे रंगलाल भील
उसकी आँखों में जंगलों की तस्वीरें थी
उसकी आँखें मेंह की तरह बरसने वाली थी
उसका चेहरा चट्टानों की तरह सख्त था
उसका रंग इतना नैसर्गिक दिख रहा था
जैसे पेड़ों की छायाएं देह पर छाई हों
उसे फिर याद आया कि मेरा नाम रंगलाल भील है
मैं माँ की याद को कैसे कहूँ
बहन की बातों को कैसे बोलूँ
भाइयों की बातें तो हजार बातें हैं
जिन्हें नहीं कहा जाए तो अच्छा है
वैसे तो मैं धरती-आसमानों की बातें कहना चाहता हूँ
मैं उन स्थानों की बातें कहना चाहता हूँ
जहाँ मेरा जीवन घासों की तरह कुचला गया
पेड़ों की तरह काटा गया
आज मैं सरकारों के बारें में कहना चाहता हूँ
मैं संविधान के बारे कहना चाहता हूँ
पर मेरा नाम रंगलाल भील है
इतना कहकर मंच से वापस चला गया रंगलाल भील
वह
वह स्त्री भूल गई है काजड़–टीकी
सोलह साल का वह मुख
और तिनके-सा वह सुख
जो नहीं मिला स्त्री होने से
और मैं भूल गया हूँ वह कविता
जो काजड़ की तरह सघन थी
उसकी किशोर आँखों में
चूमना
तुम्हें प्यार करते हुए
कब सोचा था
तुम्हारे चूमे हुए होंठ
तुमसे अलग हो जायेंगे
तुम्हारी छु हुई देह
एकदम शिथिल हो जायेंगी
सालों बाद
कोई तुम्हें चूमकर पूछेगा
कि कैसा लगा
अतीत के सारे स्पर्श
उतर आयेंगे देह में
और वे दिन भी
तुम कहते–कहते रुक जाओगी
स्पर्श के सुख कितने क्षणिक
और दुख कितने दीर्घजीवी होतें हैं।
कवियों से मिलना
मैं मंगलेश डबराल से मिलने पहाड़ों पर जाऊँगा
पर बर्फ जैसी धवल
ओस की तरह झरने वाली आत्मा से कैसे मिल पाऊँगा
वे इस दुनिया में नहीं रहें
मैं आलोक धन्वा से मिलने पटना जाऊँगा
उनकी कविता में आयी बेटियों–लड़कियों
और उन स्त्रियों से कैसे मिल पाऊँगा
जो किसी एक जगह नहीं रहती
थोड़ा और आगे
जीबनानन्द दास के गांवों में जाना चाहता हूँ
वनलता सेन से मिलना चाहता हूँ
पर इतने प्रिय कवि है देश-देशान्तर में
किस-किससे मिल पाऊँगा
वैसे कवियों में प्रभात से मिलने में सहूलियत होगी
वे दो कोस दूर के हैं, सबसे कम दूर के हैं
पर इतनी करुणा कहा से लाऊँगा
इतना दुख कैसे सह पाऊँगा
इसलिए प्रिय कवियों से मिलना स्थगित कर रखा है।
लोक का तंत्र
साब, मैं तुम्हारी भी सुनूँगा और उनकी भी
सुनाओं, तुम्हारी इच्छाएँ और तुम्हारे दुख
तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में कब से खड़ा हूँ, साब
मैं तुम्हारी विपदा को घोर विपदा मान रहा हूँ
तुम्हारी संपदा को देश की संपदा
मैं तुम्हारे चेहरे की हँसी से हँस लूँगा, साब
तुम्हारे दुखों पर गहरा मलाल जताऊँगा
और कर भी क्या सकता हूँ, साब
मैंने जीवित रहने का सपना भी
कैसे–कैसे दुःखों से बुना है।
अमर दलपुरा राजस्थान से हैं। तद्भव, बहुमत, समकालीन जनमत, कथेसर, दैनिक पत्र-पत्रिकाओं आदि प्रिन्ट
माध्यमों के अतिरिक्त विभिन्न वेब माध्यमों में उनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। उनसे amardalpura@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।