पोयम्स इंडिया में हम आरम्भ कर रहें एक स्तम्भ “जुम्बिश”— अपने समय के कवियों से मेल मुलाक़ात का सिलसिला। ये कवि हिंदी में कम लोकप्रिय भले हो पर वे भाषा, शिल्प और कथ्य के तौर पर नया रच रहें है और अपने समय से मुठभेड़ कर रहें है। हमारी कोशिश है कि इन कवियों की रचनाओ को सामने लाया जाए और उन्हें एक सशक्त मंच प्रदान किया जाए। यदि आप भी कविता से ताल्ल्लुक रखते है या किसी को जानते है तो हमें अपने परिचय, एक तस्वीर और न्यूनतम पांच कविताओं सहित लिखें। आज पेश हैं अमित जोशी की कविताएँ।
अमित जोशी 29 वर्ष के है। पेशे से वित्तीय-प्रौद्योगिकी (फिनटेक) क्षेत्र के एक स्टार्टअप में कार्यरत है। अमित ने वर्ष 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक शिक्षा पूर्ण की, तदनन्तर मुंबई एवं बैंगलोर जैसे शहरों में कार्यरत रहें। वर्तमान में दिल्ली में रहते है।
अमित उत्तराखंड के एक छोटे गाँव-चौरास से आते है। घर में कुमाऊंनी, गढ़वाली, हिन्दी तथा अंग्रेज़ी के सम्मिश्रण से निर्मित बोली मौखिक संप्रेषण के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है और वे इसे एक परिवार की चुनिंदा उपलब्धियों में से एक मानते है। फ़िल्म, साहित्य तथा अर्थशास्त्र में गहरी रूचि रखने वाले अमित अपने अतिरिक्त समय में पढ़ने और लिखने को प्राथमिकता देते है। अमित की कविताओं में एक अलग भाषा और बिम्ब है जो स्मृतियों के साथ आते है और अपनी सशक्त उपस्थिति कविता में दर्ज करते हैं। दिल्ली जैसे शहर में आपाधापी और अस्थाई बनते बिम्ब के बीच वे लगातार संघर्ष करके कुछ नया सृजन करने की जद्दोजहद में है और हिन्दी को समृद्ध कर रहें है।
चयन एवं सम्पादन - संदीप नाईक (naiksandi@gmail.com)
स्मृतियों के सूत्रपात
पिंडदान लेने आये हमारे पितृ
उनकी जेबें ढीली थी
नाक ऊपर से बहती,
टखने धरती से
दो पैसा हवा में
लत्थे रिसते पीत पदार्थ
घर की ओलती पर फड़फड़
क्रौंच पक्षियों के झुण्ड
पितरों पर हुआ दृष्टिपात
किन्तु रुदन किंचित ना हुआ,
और ना ही उत्कीर्ण हुआ
किसी के शोक से श्लोक
पितरों के पाड़े पर
बाँबियों से आवा जाही,
औचक चिटियाँ उड़ने लगी
टक्कर पड़ती, रगड़ खाती
पितरों की भूमि पर
होता अग्नि का आविष्कार।
कोटर, कर्णफूल से
नथुने, लसलसी जिह्वा
सुदूर कोंपल स्पर्श में
बीतता समय सोख,
पितरों ने
देहवास से कुछ क्षण पूर्व
रखवाली करने छोड़ रखी थी
इंद्रियाँ
शीतनिद्रा में
अबूझ बल में ख़ुद को झोंक चुके
पितृ सभी वामन बन रहे हैं,
सीत्कार के घोष पूर्व
कपिश होती लहरीली
लोमश काया पर सिमटते,
अकवार में
शिशु से उठती
उबले भात की सुगंध
सूंघते ही हर बार -
कलेवर भीतर अवशेषों से
गछ जाती,
अंतस के विवर पर जा बैठ
काकभुशुण्डि खीर खाता और
स्यात् स्मृतियाँ प्रसूत जाती।
नींद में प्रार्थना
कोरे पत्थर पीट-पीट
अरुण अनुनादित
सम्पुट बरसाती से
धूसर नभमण्डल
पाए प्रतिबिंब
झरोखे बरसाती के
केका करे मयूर
जब दृष्टि पर मंडराते
मन के साये
पोताधान पनप
ललाट पर
स्वेद चिह्न कुम्हलाते
ओ मेरे मधुसूदन महराज!
हम कैसे नींद सो पाएंगे
तमिस्त्रा में गर
बरौनी पर राख जम रखी हो
लोचन से कभी नींद उड़ जाए
तब सबसे निचले माले
खेला खेलते
खेलते बटुक के पाँव
कुल चार पैर हमारे
धंसने लग जाए।
पुष्प मंजरी
व्योम-के--श पर
थिरक निकली उषा
अवतरित तब
हुई यूँ तितली
एक हरक के
घर में युवती
जन्म ले ली
वर्षा ऋतु में
पुष्प-रेणु सरीखे-
उसके टूटे केश,
काले गुलाब - हरक ने कुचले
सूचक पक्षी के पंखों की झरी
एकत्रित टुकड़े भोर में सभी
सप्तपर्णी का फूल बन जाएँगे
आमद गंध हरचने को
मुझे भेजता मेरा मन
मैंने कूद लगाई
शीशे की कूप में
मैं वहाँ कुछ रौशनी जैसा गिरा
थिरकते, ठिठुरते
दरारों से फिसल
पात पड़ी पत्तों
के बीच होते हुए
युवती की तितलियाँ
मैंने ढूँढ निकालीं
किंतु बोर सूख चुका
नीरसता सोख ज़माने की
कौंधते दर्पण पर
वाष्पीकरण होते
युवती के स्वयं का बिंब, व्याकुल
मन कुंठा से घिर जाता
जब हाथ लगती केवल
राख की छूटन,
युवती के सजोए अश्रु
दुछत्ती पर संदूक से गोशवारा
हवाओं द्वारा अपवाहित
महल प्रकट हुआ
वहाँ आज भी
हम चुल्लू से तितलियाँ पैदा कर रहे हैं।
गाँव की मोटर बस
स्मृति
अवसाद की
पीड़ा में
टूट कर बिखर पड़ी
स्वप्न से बोझिल अवतंस
साझा करते श्रुतकेवली को
श्रवण कर रहे दो देहात-वासी,
सफ़र के दौरान
संगम से उठकर संधि पर आ बैठ
खूब चाँद पी लेने से
उनकी सदबद ग्रीवा नीली थी
वे उस रात
बहुत तेज़ी से साँस भरते
उड़ रहे थे
इर्द-गिर्द उनके घोंसलों के
तूफ़ान उमड़े थे
मन के सफर में
दो और आई पाखी
प्रवासी पुरानी
ठहर कर सोचते दोनों
कि भला सफर कैसे टूट जाता है
अब तक दूसरे किसी रास्ते पर
वे कैसे नहीं पहुँचे?
किंतु कलुषित मन का
ठहरने से कैसा मोह?
नहीं ठहरते - झरते पत्ते
नहीं ठहरते - पत्ते
नहीं ठहरता - ठहरना
तो क्यूँ ठहरे प्रवासी?
दो देखने और चार कहने
आफ़िस से चलकर साथ आए
पादुका मेरी
डग भरते हुए घर
दस अंगुलियाँ
पैंट की दोनों जेबों में छिपाकर
ले आया घुटनों तक
सरोबार मनुष्य
अपने चित्त को भिगोकर,
नाच रहे कलेवर की
परिधि पर
उत्ताल कीट के झौंर,
विश्रामस्थ डील- शाल भंजिका
मानस दीवाल पर है
आले समान विस्तारित
संध्या की घड़ी हुई
थकान से चूर
रहे समान गंतव्य पर
हम सभी मनुष्यों की
मम्टी पर बिछी चटाई,
मानुष डील में आने को
गुहा तंतु ऑफिस के
पदाघात निमित्त
महसूस करने की कोशिश में है-
छपी पैरों की
गीली परछाई