
गुंजन उपाध्याय पाठक, हिंदी में एक परिचित हस्ताक्षर है। उनकी कविताएँ सदानीरा, समकालीन जनमत, इंद्रधनुष , दोआबा ,हिन्दवी, स्त्रीकाल आदि में छपी है। वे पटना (बिहार) में रहती है और मगध विश्वविद्यालय, इलेक्ट्रॉनिक्स से उन्होंने पीएचडी किया है।
गुंजन मूल रूप से स्मृतियों की कवयित्री है उनके पास स्मृतियों की एक लम्बी श्रृंखला है जिसे वे किसी मोतियों की माला की तरह पिरोकर कविता में बांधती है। उनकी स्मृति में अदभुत बिम्ब है जिनके सहारे वे एक तरह से अपने समय में अतीत को और संग-साथ चल रहें समय को दर्ज करते चलती है। गुंजन का सामाजिक सरोकार भाषा और कविता के अनुशासन को दर्शाता हैं, और इसे वो पूरी जिम्मेदारी से निभाते चलती है। कविता में बिखराव और दुराग्रह उनके यहाँ नहीं दिखते। उनके बिम्ब में स्त्रियाँ, दुःख और मुद्दे तो है पर ये सब उस तरह से नहीं आते - जैसे हिंदी कविता में प्राय: देखने को मिलते है। प्रेम और गहरा सरोकार उनकी कविता का स्थाई भाव है - जिससे वे बार-बार जूझती भी है और बहुत शिद्दत से अपनी कविताओं में बेहद सलीके से उभारती है। गुंजन को पढ़ना अपने समकाल में स्त्रियों के बुलंद और आशावादी स्वर को पढ़ना है।
चयन एवं सम्पादन – संदीप नाईक
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१. रूदाली
रात के बाद
एक पहर ठिठक कर
कालगति के पैरों में बंधे पाज़ेब पर
झंकृत होता है सितारों का राग
मसानों के लपटों की तरह
नाचती हैं ख्वाहिशें
समय की देहरी पर
एक साथ उतरती हैं
हमारी कदमों की थाप
वक्त अबोध सा
औचक हो
तकता है हमें
दीवारों की दरारो के उस पार
किसी उदास दोपहरी में
थिरकता समय
बंद कैदखाने से,
तुम्हारी कल्पनाओं की मृत्यु पर
गाहे-बगाहे गाने लगता हैं
और मुसकुराती हुई रूदाली
रोने लगती है, अनायास
२. उसके हिस्से में
उसने झांका पानी के पारदर्शी आईने में
गायब था वहाँ से भी
उसका प्रतिबिंब
हर बार की शल्य चिकित्सा के बाद
न जाने ऐसा क्या कर गुजरता था चिकित्सक
कि वह ढूँढती थी ख़ुद को ही
और अपनी अनुपस्थिति का अंदाजा होते ही
गढ़ने लगती थी
अपना ही-सा कुछ कुछ
आकृति
जिसकी निगहबानी में कुछ और दिन बहानों में
गुजारने थे
समुंदर रेत था
रेत समुंद्र
उथला इतना कि
गहरा जितना
उसने जाना दलदल होना
फ़सानो में गहरे तक धंस जाना
किस्सगोई के आंगन में उड़ना/गिरना और
रेंगते हुए फिर किसी स्ट्रेचर पर ख़ुद को
सपुर्द कर देना
मौत अभी उसके हिस्से में नहीं थी
३. चौरासी
इस बेतुके जीवन के
अंत के ठीक पहले
इश्क की इनायतें
शायद लुका-छिपी से हार कर
उमड़ पड़ी हैं मन के आंगन में
छीजती दीवारों पर अल्पनाएँ उभर आई हों
सांझ की बेहयाई में
कोई उतारता है अपना खोल
दिन और रात दहलीज़ पर ठिठके खड़े रहे हैं
चाँद की कुबड़ पर तड़प की
नर्गिसी खिल उठी है
समर्पण का यह अंदाज
ऐसा कुछ है कि जानते हुए भी कि
इन चौरासी सिद्ध कलाओं का
जोग नहीं है मेरी हथेलियों में
मैं बाट जोहती हूँ उस बेला की जब
धड़कनों में उन्माद की लय बहे
इश्क का धुंआ कुछ ऐसे उतरे धमनियों में कि
वैद्य तक को गुमान न हो
अप्सराएँ रश्क करें
सारे झूठ सारे भरम
तुम्हारे स्नेहसिक्त शब्दों में परिवर्तित
वास्तविकता की तरह मेरे भाग पर टपके
अवांछनीयता की चोट पर
तुम्हारे शब्द छलकते रहे किसी मरहम की तरह
जानते हो
जेठ की दुपहरी में
इश्क की अठखेलियाँ तपती नहीं हैं
बरसती हैं
४. सिलेक्टिव गड़बड़ी
उसकी देह में यूँ सिमट गई थी
अलबेली हसरतो की झांस
कि अलग होने पर भी
वह साथ उसके भीतर करवट लेता रहा
कितनी ही बार तो
बिल्कुल पास का धोखा-सा हो गया
जबकि पास में खड़ी वास्तविकता
अजगर की तरह साबुत निगल लेना चाहती थी
उसका वजूद
वह वहीं-कहीं छूट गई थी
जहाँ ब्रेड के कुछ टुकड़ों को
कुतरे जाने का इंतज़ार था
जहाँ दो घड़ी वक़्त भी
बियर को होठों से छू कर रश्क कर रहा था
सिलवटो में प्रेम खिलखिला पड़ा था
निकटवर्ती नदी
उन लम्हों के दरमियान तैरती रही
और दो लोग मानचित्र से गायब हो गए थे
किसी को कानोकान इसकी कोई ख़बर तक नहीं
यह मुहब्बत की क़िस्सागोई भर नहीं थी
यह बेयकीनी का यकीं के रंग में बदलना-सा था
जिसे चूमा गया छूआ गया और
वह लम्हा सुहागन हुआ था
ग्रह नक्षत्रों की जहाँ जितनी देर में मिचमिचाती
या फलक देता सूचना
किसी भी तरह की सिलेक्टिव गड़बड़ी का
यह फरवरी था
या सिर्फ़ एक अलसाया हुआ दिन
याकि ज़िन्दगी से एक दिन चुराया हुआ
या फिर यह ज़िन्दगी ऋणी हुई थी तुम्हारी
तुम्हारी पीठ की तिल की गिनती में
आर्यभट तक चौंक गया था
या कि इनकी तिलिस्म से चांद जल गया था
यह अंकगणित और चांदनी की शर्तो में बंधे
नियमों को मुंह चिढ़ाता हुआ-सा सोफे पर पड़ा था
अब रात अपनी बेरहमी पर शर्मिन्दा थी
जोगी !
तुम्हारी हथेलियों का हरहराता हुआ स्पर्श
मोक्ष की कामनाओं को रद्द करता हुआ
मांग लेना चाहता है फिर से
कोई ऐसा ही बेख़ुद लम्हा
५. पटना
भागती दौड़ती सड़कों का जुनून
अब मेरी नसों में धड़कता है
“पटना” अब कोई बस एक शहर भर नहीं
मेरे जुनूं का सबब बन गया है
गांधी मैदान कहते ही एक रोमांच खिंचता है सांसों में
और बोरिंग रोड में बसी एक कॉफी शॉप में
मेरा दिल पहलू बदलता रहता है
बेली रोड की लंबी जाम में
बेसबब भटकता रहता है
अशोक राजपथ में
पुरानी मुहब्बत की अज़ान गूँजती है
कंकड़बाग में हृदयगति का आरोह-अवरोह सिमटा है
राजा बाज़ार के एक हॉस्पिटल में
कितनी रातें बिखरी पड़ी हैं
कई कश बेसबब है
होठों पर खिलने के लिए
तुम्हारा नाम सुनते ही पार्श्व में छिपे अवसाद के
कानों तक में एक हँसी घुलती है
इश्क की बिल्लियाँ घात लगाए बैठी हैं
चाँद बार-बार मेरी खिड़कियों पर दस्तक देता है
सितारों ने मेरी चुगली लगाई है
रक्तवाहिकाओं की मद्धिम चाल में
फँसती नहीं है आकांक्षाएँ
देह में नीले-पीले फूल उतर आए हैं
इश्क की अठखेलियों में बरामदी हुई है
कुछ मुड़े-तुड़े ख्वाबों की, चॉकलेट के रैपर की, कुछ
मुरझा चुके फूलों की पंखुड़ी और सिगरेट के धुंए की
कुछ पैबंद लगे नींद की, कुछ मोच पड़े जाग की
बेकसी में ख्वाहिशों का घुंघरू बाँध कर
नाचती हैं अब रात
विक्षिप्त-सा धंसा हुआ संताप
धीरे धीरे पिघलता है तुम्हारी गंध में डूबकर
मेरी जां
कैसे तो पुकारता है यह शहर मुझे
कि धड़कन एक बिट स्किप कर जाती है
अब जब इस शहर के हर मायने
नए अंदाज़ में टोकते हैं मुझे फिर भी यह पटना
मेरे घिसे तलवों में अब वह
गीत नहीं रच सकता है
६. सितार
तुम्हारी उँगलियाँ
यूँ थिरकती है देह पर
जैसे कोई दक्ष सितारवादक
अपनी बेचैनियों और सुकून से
बुन रहा हो कोई नई धुन
यहीं-कहीं एक मीठा ख़्वाब सिहरता है
जिसमें छीलते है छूने की चाह में मन
कुतरती हुई-सी ये खामोशी
और उजली-उजली रातें
तुमसे कहने को बेकरार बातें
ठकुआ-सी जिह्वा पर घुलते स्पर्श
कानों में ख्वाबों के दृश्य का चलचित्र
पेट में कोंचते कुछ आवाज़
बिना किसी चीख के
स्वरभंग की स्थिति
ऐसे में
आंखे मूंदे
अपने आप को
उस सितार में तब्दील होता देखती हूँ
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