सो-कॉल्ड मुहब्बत
एक दिन सारे रास्ते बंद हो जाएँगे
विस्मृतियों के पंजे
गले दबोच लेंगे
टूट जाएँगे
सिलसिले चाहतों के
और अपनी-अपनी चालाकियों और
मासूमियत से भरे
हम बीच दुपहरिया
सन्नाटे काटते हुए
रो पड़ेंगे किसी चौराहे से गुजरते हुए
बीती गुमनामियाँ
कहीं किसी मोड़ पर रुककर
कर रही होंगी मेरा इंतज़ार
इस लुका-छिपी के खेल में
इक दिन न चाहते हुए भी
पकड़ी जाऊँगी, मैं
समेटे हुए तुम्हें ख़ुद में
अंत के बाद की खुशबू की तरह
व्याकुल रातों का दारिद्रय
काटेगा चिकोटियाँ
और स्मृतियों की चींटियाँ पंक्तिबद्ध होकर
दिमाग पर करेंगी हमला
बीते दिनों की फूलों वाली बात
चेहरे पर करेगी खुजलियाँ
और बार-बार हवाऐं खीझ से नोचेंगी हमारी स्मृतियाँ
फिर भी मेरे महबूब
आस्वाद चखाने का शुक्रिया
इस सो-कॉल्ड मुहब्बत के अनुभव का
चौरासी
इस बेतुके जीवन के
अंत के ठीक पहले
इश्क की इनायतें
शायद लुका-छिपी से हार कर
उमड़ पड़ी हैं मन के आँगन में
छीजती दीवारों पर अल्पनाऐं उभर आईं हो
सांझ की बेहयाई में
कोई उतारता है अपना खोल
दिन और रात दहलीज पर ठिठके खड़े रहें हैं
चाँद की कूबड़ पर तड़प की
नर्गिसी खिल उठी है
समर्पण का यह अंदाज
ऐसा कुछ है कि जानते हुए भी कि
इन चौरासी सिद्ध कलाओं का
जोग नही है मेरी हथेलियों में
मैं बाट जोहती हूं उस बेला कि जब
धड़कनों में उन्माद की लय बहे
इश्क का धुंआ कुछ ऐसे उतरे धमनियों में कि
वैद्य तक को गुमान न हो
अप्सराएं रश्क करें
सारे झूठ सारे भरम
तुम्हारे स्नेहसिक्त शब्दों में परिवर्तित
वास्तविकता की तरह मेरे भाग पर टपके
अवांछनीयता की चोट पर
तुम्हारे शब्द छलकते रहे किसी मरहम की तरह
जानते हो
जेठ की दुपहरी में
इश्क की अठखेलियां तपती नही है
बरसती हैं
मार्च
यह मार्च था
आगामी चुनावों की बेहयाई
भांय-भांय करती हुई सड़को पर
दौड़ती भागती हुई दिख पड़ती थी
सेमल के फूल झड़ने लगे थे
बजट सत्र में दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने की
कला से निरस्त किया जा रहा था
धूप पसर कर रगों में
चिलमिलाने लगी थी
दिन लंबे थे
राते गुजरने का नाम नहीं लेती थीं
ऐसे में एक ट्रेन पटरियों पर थरथराने की जगह
धड़कनों में शोर करने लगी थी
गाड़ियों में लादे जा चुके थे झंडे और बच्चे
गलियां शोरों से पाटी जा चुकी थीं
मेरे ही बच्चें दोनों ओर से खड़े थे
जिनके हाथों में होनी थी डिग्रियां
धर्म बचाने को तत्पर गंवा रहे थे अपनी गर्दन
और झंडे दिखाने वाले
सत्ता के गिद्ध पारिस्थितिकी के अनुसार छांट रहे थे
कब कहां किस गली में होनी चाहिए ख़बर
ऐसे में महुए की गंध थी या
उसके नाम के शब्दों का असर
हम शुरूर में होश ढूंढ रहे थे
और अर्थशास्त्र की भाषा में प्रेम कर रहे थे
उर्मिला
प्रेम, प्रेम चिल्लाते हुए
तैयार हो गए, तुम
राम के साथ
जाने को, वन में
तुमने देखा राम का मुख
और भूल गए
अनेकानेक भयानकता यात्रा की
मगर हमेशा से ही इंकार कर दिया
उस प्रेम को
जो आँखों में भरकर खड़ी रह गई होगी उर्मिला
राजमहल के द्वार पर
सुग्गा
संप्रेषण की सारी सुविधाओं के बीच का अबोला
किसी कोढ़ खाए
घाव खुजाते
मक्खी उड़ाते सा ही नाकाम रहा
दिल भी था और धड़कने भी
मगर नही थी तो
कुछ बेग़ैरत-सी ख्वाहिशों का पता
यह तस्वीर अपनी संपूर्णता में
अधूरी ही रहेगी का श्राप
दिन-ब-दिन फलीभूत होता जाता
और न चाहते हुए भी उसका संशय पुख्ता
अवसादग्रस्त शामें
अब भी चिहुंक उठती थीं
और हर छुअन ताप बनकर उभरती थी देह में
और नीली देह में जगह-जगह पीले फूल उभर जाते थे
इक-आधी पी गई सिगरेट की तरलता में
न जाने कितनी ही बार
मई की धूप को सुखाया गया
इक अधखाया कौर निगलते हुए
मुस्कुराते हुए आँखें रो पड़ती थीं
पैरों के अंगूठे में गड़ा
मुहब्बत का ताब
उसे डूबने से बचा लिया करता था
रोष व्यक्त करते हुए
भींचे दांतो से पुकारती थी हवाएं उसका नाम
रिक्शे में छूटते हुए उसे एहसास होता
मांओ से विदा लेती बेटियों के आंसुओ का
जब वह अतिरिक्त स्नेह से पुकारता
उसे याद आता नानी सुग्गा बुलाया करती थी
प्रेमियों के हृदय में हर रिश्ते
अपनी सहालियत से मिलते हैं
और ख़ामोशी की नज़र
धैर्य का खुरदुरापन
नोंचता है अपनी ही देह को
डाह
इक हौल सी उठती है सीने में
दिन भर एक बेकसी घेरती है
तलवों में रातरानी महकती है
शब्दों का निराकार स्वरूप
नाभी से झरबेड़ी की तरह फूट पड़ता है
सर्दियों की शामों में सदियों का प्रेम राह अगोरता है
घंटो कंपकपाती देह में गड़ती है
रात की चीखती दीवारों के शब्द
दिन भर तो तुम्हें गुनते हुए कट जाते हैं
कितनी ही बार गिलहरियों का जोड़ा गिनने में
फेसबुकिए हरी बत्ती में
मगर किसकी नज़र लगी है कि
ये रातों के पैर
घड़ी की काँटों में उलझे उलझे
फर्श पर जिनके जख्मों का खूं गिरा है
मुझे डराती हैं
प्रेम शब्दों के प्रस्फुटन
अब सिर्फ गूंजते ही नहीं देह में आकार लेते हैं
ज्यों-ज्यों मैं सीखती हूँ इनकी भाषा
मुझे डाह होती है
उन सारी स्त्रियों से
जिन्होने तुम्हें प्यार किया
(मंगलेश डबराल को पढ़ते हुए)
नींद की गोलियां
छूटते हुए
कुछ और गहरे उतरते रहे हम
बिन कहे अबोले में
संगीत था या थी सजीव नटराज की भाव-भंगिमा
इस देह की बढ़ती परिधि में
बढ़ते हुए माँस
और कुछ और भसकती हुई देह के प्रति आकर्षण
तुम्हारी प्रतीक्षा
तुम्हारी ज़िद में
अब जब विकलांग था कौतूहल और
प्रेम पर था चैतन्यता का बोझ
तुमसे मोहब्बत तो न थी
मगर छूटते हुए
बरसती आँखों और कांपती देह का
कोई तर्क भी नहीं था मेरे पास
हाँ, एक चाँद गवाह बना
जो खुद ही एनीमिया का शिकार था
अब मैं और चांद
आधी रात सुलगाते है दिन भर की थकन
अंधेरे अपनी व्यग्रता से डराने की कोशिश में
कुछ और होते जाते हैं वीभत्स
बिस्तर पर पड़ी नींद की गोलियों को
न जाने कौन से ख़्वाब का इंतजार है
धूप
पूस की सुनसान रातों में
जागते होने का संताप विकल नही करता
इन दिनों मैंने सीखा है
तुम्हारी लहजों का रंग समझना
बातों के मध्य अंतर और प्राक्ट्य की कोडिंग
लय ताल उम्म्म-हम्मम के बीच
बार बार दोहराना कि मैं हूँ
और कहते हुए चुप हो जाना
इन दिनों उत्कंठा नही सताती
जब कभी याद करती हूँ तुम्हारे पाँव
जिनके पोरों में धड़कता हुआ मेरा दिल
आवारगी करता है
तुम्हारे पास भर होने से
चवन्नी-सा चांद और भटके हुए सितारे
रश्क करने लगते हैं मुझसे
जैसे किसी अलग द्वीप का नक्शा हो
तुम्हारी हथेलियों में
जिन्हें थामकर अक्सर गुम हो जाना चाहती हूँ बेखुदी में
तुम्हारी ही प्रतीक्षा और तुम्हारी ही ख़ोज
ढूंढती है थोड़ी धूप
जिसे पहन कर
दिया जा सके ऐसी सर्द रातों को धोखा
गुंजन उपाध्याय पाठक पटना से हैं। दो कविता संग्रह "अधखुली आँखों के ख़्वाब" और "दो तिहाई चांद" सदानीरा, समकालीन जनमत, इंद्रधनुष , हिन्दवी आदि में भी कविताएं प्रकाशित।