जड़ें
पिता लिखते-लिखते
पंजाबी के शब्दों में मिला देते
हिन्दी के शब्द,
मिली जुली मात्राएं उभर आती
शब्दों में चित्र बन
दिल्ली में रहती मौसी
अपने पड़ोसियों से हिन्दी में बात करते-करते
पंजाबी बोल उठती
हमारे साथ पंजाबी बोलते वक़्त
मिला देती हिन्दी
मैं पिता के लिखे हुए शब्द
बिना कठिनाई के पढ़ लेता
जैसे मौसी के पड़ोसी समझ लेते उसकी बात
कभी कोई बांग्ला भाषी मिलता
तो पिता चहक कर बोलते बांग्ला
कभी-कभार थोड़ी ओड़िया भी
शहर जब छूटता है
तो सारा नहीं छूटता, थोड़ा सा
साथ चला आता है
मेरे दोस्त ने बताया था अचंभित हो
पड़ोस के मोहल्ले में रहने वाले
उसके सहकर्मी ने
हम लोगों के लिए रिफ्यूजी शब्द प्रयोग किया
कुछ प्रश्नों का जवाब सिर्फ मुस्कुराहट होती है
उस दिन जब बेटे ने पूछा
हमारा गाँव कहां है
मेरे 'कहीं नहीं' कहने पर बस इतना बोला
'होता तो अच्छा होता'
वह फुटबॉल उठा खेलने चला गया
डूबते सूरज को देर तक देखते हुए
सोचता हूँ
इंसान की जड़ें कैसी होती है
कैसी होती है उसकी अपनी मिट्टी...
अश्लील कविता
जब जन्म लेती है कोई कविता
तब वह नंगी ही होती है
किसी सोच में उधड़ते नग्न विचारों सी,
फिर भी ना जाने क्यों
हमें कविताओं को आवरणों में
ढकने की आदत हो गई है
सुना है
नग्नता या तो कलात्मक नज़र आती है,
या फिर अश्लील
पर कहाँ होता है कुछ कलात्मक-सा
भूखे पेट का किस्सा कहती कविता में,
कि भ्रष्टाचार की बात करती कविता
नहीं दंभ भरती किसी कलाकारी का,
कविताएं जब न्याय मांगने आगे आती है
तब वे अन्याय-सी ही नंग-धड़ग
किसी लाचार दलित उत्पीड़न-सी
दौड़ती है सड़क के बीचो-बीच
नारी के नंगे जिस्म से शुरू होकर
पुरूष की नगीं सोच तक सिमटती है
लिंग भेद की कथा कहती कविता
रहने दीजिए
इस कविता को एक अश्लील कविता ही,
कि क्रांतियाँ ना कभी कलात्मक हुई
ना होगीं
पंखे पर लटकी रोटी
स्कूल जाते वक़्त
माँ बच्चे के टिफिन में
रख देती एक रोटी
और साथ ही साथ
बहुत सारी रोटियाँ रख देती
उसके दिमाग़ में
बच्चा जान गया है
उसके स्कूल जाने का मतलब
सीखना नहीं
भविष्य की रोटियों का
इंतजाम भर है
दिमाग़ में पड़ी पहली रोटी
उसे ले चलती है
गली के नुक्कड़ पर खुली
ट्यूशन क्लास तक
दूसरी किसी नामी-गिरामी
कोचिंग संस्थान के दरवाजे तक
प्रतिशत की एक संख्या बना
बड़ी-बड़ी रोटियां ले आती हैं
उसे बड़े बड़े शहरों के
डिब्बेनुमा कमरों में
बड़ी-बड़ी प्रतिस्पर्द्धा तक
पर ये रोटियाँ कई बार
इतनी अधिक भारी हो जाती हैं
कि उसे ले आती हैं
बन्द कमरे में लटके
किसी पंखे तक
आराम से झूल जाने के लिए..
अम्माएँ
गुड की बनी चाय पीती थी
और कहती थी इससे सुगर नहीं बढ़ती,
यूँ अपने इस ज्ञान पर इतना ही भरोसा रखती थीं
सुनने वाले की सहमति असहमति जितना,
अंग्रेजी के शब्दों का कत्लेआम करती,
और नात-पोतों के चेहरे पर बिखर जाती
ढेर सारी हँसी बनकर
इन अम्माओं के पास बातों की कमी नहीं थी,
हर महीने पाकिस्तान के घर के पास के मासिक मेले से पंचतोलिया सोने के हार लेने से लेकर,
चूल्हे के नीचे दबा कर आईं गहनों के ढेर की अमीर दास्तान से लेकर
सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए कतारों की तकलीफ़
बताते गिड़गिड़ाते किस्से तक,
एक दोस्त की अम्मा
शक करती थी, आते जाते दोस्तों पर,
दिन भर गालियाँ बकती
कि दोस्त के चाचा को किसी ऐसे ही दोस्त ने
नशे की आदत लगवा दी,
और हर दोस्त को वैसा ही समझती,
अम्माएँ जो घर में प्रेत-सी भटकती,
अवांछित,
बहुओं की आंखों की किरकिरी बन
और बेटियों की आंखों के दर्द
कई-कई बार इसके विपरीत भी
अम्माएँ चाहे कितनी ही कंगाल दिखती थीं
घर आती-जाती लड़कियों के हाथ में धरने को
किसी अजनबी शहर से आए अनजान रिश्तेदार के लिए भी,
जाने कौन-सी पोटली से कुछ निकाल ही लाती
यूँ देने को उनके पास कमी नहीं थी,
वो लुटाती रहती थी हर आने जाने पर
ढेर सारी मुस्कुराहटें,
आशीर्वादों के गुच्छे,
दुआओं की कतारें,
नज़र उतारते हिलते हाथ,
उनकी आँखों में उतरते भोलेपन के कायल होने लगते आने जाने वाले जब
बहुएँ खीझ-भरी टिप्पणी करती, और
अम्माएँ
अपनी टीस को हौले से होठों के नीचे दबा लेतीं
बातों की तरह ही
उनके पास कमी नहीं होती ईश्वरों की,
और उन अनगिनत ईश्वरों के लिए
अनगिनत प्रार्थनाओं की,
जैसे कोई अंत नहीं था इन प्रार्थनाओं का
वैसे ही
खत्म नहीं होती, उनकी बीमारियाँ
उनके रात भर खाँसने की आवाज़ें,
लगातार चलने वाले घुटनों के दर्द,
आँखों की कम होती रोशनियाँ,
कहानियों जैसी लंबी तकलीफों की दास्तानें,
यूँ तो
अम्माओं ने एक लंबी दुनिया देखी थी,
अम्माएँ कितना कुछ जानती थीं
फिर भी अम्माएँ नहीं जान पाईं
इतने ढ़ेर सारे ईश्वरों के पास भी
उनकी ढ़ेर सारी तकलीफों के हल नहीं थे…..
अजीब बात है
हमारे यहाँ
सब कुछ आम-सा है,
घरों में जब-तब घुस कर कोई वर्दी वाला
नहीं लेने लगता तलाशी
और ना ही हमारे घर की औरतो की अलमारियों से
उनके अधोवस्त्र निकाल कर
उन्हें दीवारो की खूँटियों पर टांग कर
अपमानित करता है
हमारे खेतो में
जब-तब नहीं गिरते
आसमान से गोले या ज़िंदा बंब
और ना ही हमारे ज़िंदा बच्चे
किसी ज़िंदा बंब को छूकर मर जाते है
या बीज देते है वो कोई ऐसी फसल
जिनमें से बंदूके पैदा हो
हमारे घरों में जवान हो रहे लड़कों को
यकायक सड़क पर चलते कोई
गोली मार कर औंधे मुँह नहीं गिराता,
ना ही कोई उन्हे आंतकवादी बता कर घरों से
इस तरह ले जाता है कि
वो कभी वापस नहीं आते
पिछली सदी की बातें अब यहाँ नहीं घटती
कि हम शांतिप्रिय लोग है
लेकिन
हम उतनी ही शिद्दत से अपमानित किऐ जाते हैं
पुलिस थानों और चौकियों में जब
जब हम अपनी जब-तब अपमानित हुई किसी बेटी
के लिऐ इंसाफ ढूंढने जाते है और
उतनी ही निर्लज्जता से चरित्र हनन होते है हमारी बेटियों के
हमारे यहाँ किसान ना जाने क्या बीजते है
कि फसल के साथ-साथ उग जाते हैं
तमाम कारण
आत्म-हत्याओ के
नौकरी ढूँढने घर से निकले हमारे युवा
ना जाने क्यूँ साँझ ढलते-ढलते
औंधे मुँह
किसी सूने पार्क में नशे में गर्त नज़र आते है,
हम लोग तुम लोगों से अलग हैं
कि हम शांतिप्रिय हैं
पर हम भी जाने क्यों हर पल
डरे-सहमे से रहते हैं तुम्हारी तरह
अनजानी आंशकाओ से घिरे
अजीब बात है!
हरदीप सबरवाल सुपरिचित कवि एवं कहानीकार हैं। हिंदी, अंग्रेजी और पंजाबी में लिखते हैं। रचनायें विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।