अनुवाद : मजीद अहमद
ख़बर
सुबह-सुबह
जिस तस्वीर को हार पहनाकर
सिर नवाकर
घर से मैं चला आया था
वही तस्वीर
बेपरवाही से
भरे बाज़ार में बातें करने लगी
अपने कंधे पर रखे हाथ को हटाकर
आँखों में आँखें डालकर
उसे रोका-
यह घर नहीं है
आस-पास चलते-फिरते लोगों की नज़र
उनके कान
बड़े बेरहम होते हैं
मेरा सिर सहलाकर
कान के पास अपना मुँह कर वह बोली-
दरवाज़े को बंद कर
तू तो निकल जाता है
फिर मेरी आँखें
कमरे के स्याह अँधेरे को छानकर
अपने बनाये रास्तों पर
सारा दिन भटकती हैं-
सामने लटकती
घड़ी की टिक्-टिक्
सिर में कील की तरह चलती है
चौकोर छत के नीचे
जो कुछ होता है
उसकी दर्शक मैं ही होती हूँ-
मेरा मन सब जगह घूम आता है
लेकिन मैं कहीं भी हाजिर नहीं होती
साँझ होते ही जब कमरे में
दिया जलता है
मेरा थका कागजी चेहरा
तुम्हारे थके जिस्म से मिलता है
आज तुमसे कहूँगी अपनी व्यथा
हर बार सोचते-सोचते ऐसे ही
सारी रात गुजर जाती है
तुम्हें देखकर
मेरे होंठ आपस में जुड़ जाते हैं
मैं सोचती हूँ- 'क्या फर्क है
तुम्हारी भटकन और मेरी घुटन के बीच ?'
उसकी बातें सुन
आँखों के आगे पानी का काँच उतर आया
उसे सँभाल कर
भरे बाज़ार से गुजरना है
अब तो यही डर लगता है
आँखों के आगे अटका पानी
कहीं ख़बर न बन जाये
श्रद्धांजलि
मैं उसकी श्रद्धांजलि सुन
दरवाज़े से बाहर निकल आया-
जो बिछुड़ गया
मेरा क्या लगता था ?
दुआ सलाम होने से पहले
पल- दो पल के लिए
चेहरे पर तनी हुई मुस्कुराहट छोड़
हम कभी भी गहरे नहीं उतरे
एक-दूसरे के दुःख के अंधे कुएँ में
भीड़ में आदमी से मिलने का
यह भी एक सलीका है
जो नहीं रहा
वही हाजिर है
हर बोलने वाले के जैसे पास ही बैठा है
वह शब्दों से
उसका परचम बनाकर
हमारे सामने लहराता है
भरे इकट्ठे में
किसी को याद करने का
यह भी एक तरीका है।
धूप के खत
जंगल में उड़ते फिरते हैं
धूप के खत
वहाँ तक
जहाँ ज़मीन और आसमान
एक हुए दिखायी देते हैं
कई खत
पेड़ों पर परिन्दों के साथ
परिन्दे बनकर चहकते हैं
कई खत शाखाओं पर
लिबास की तरह चमकते हैं
कोई-कोई खत
पेड़ के तने पर
दीवार पर लगे इश्तिहार की तरह लगता है
खत तो कदम-कदम
सावी धरती पर पड़े हैं-
कुछ पत्तों की परिभूमि पर
गुच्छ - मुच्छ हुए, जैसे
किसी ने पढ़कर फेंक दिये हों
कुछ तपते पत्थरों पर
तपस्वी जैसे ध्यानस्थ
यह जंगल बियाबान मोर और चकोरों का
पपीहे के बोलों का
राजे की दहाड़ का
या हवा के साथ
इधर-उधर घूम रहे खतों का
कोई इबारत नहीं
स्याही की छाया भी नहीं, इन खतों की देह पर
ये खत बिन सिरनामों के
सूर्य से अलग हो
सीधे आन उतरे धरा पर
अनछुए खतों की बरसात में
छुएं किसी को हाथों से
देखकर गुज़र जाऊँ किसी को
किसी समय लगता
जैसे गुजर रहा हूँ मैं
मुसाफिर की तरह
जंगल के एक और जंगल में से।
कपड़े
खुले आसमान के नीचे
घर की औरत
टब में से धोये हुए कपड़े उठाकर
टाँग रही है तार पर
तार पर टाँगते समय
उसके मन में साकार होता है
वह रूप, जिसने गंदे कपडे
उतार कर रख दिये थे धोने के लिए
वह हाथों से उठाती है
धुला हुआ कपड़ा, और
आँखों से देखते-देखते
हवाले कर देती है तार के
क्षणों में
उसने सारा परिवार
एक-दूसरे के पास-पास
एक जगह इकट्ठा कर दिया
परिवारीजन
आजकल इसी तरह
हफ्ते में एकाध बार
अपने-अपने कमरे से निकलकर
एक-दूसरे से मिलते हैं
फिर तह होकर
टिक जाते हैं अपनी-अपनी जगह
अगली मुलाकात तक।
चिड़िया उदास है
चिड़िया उदास है
इस की नानी
इसे बताती थी-
'यहाँ से एक उड़ान दूर
वृक्ष हैं-
टहनियों को छूती हुई टहनियाँ हैं
हम पुश्तों से वहाँ की ज़मीन को
चोंच और पंजों से
उलट-पुलट कर
ढूँढ़ते रहे अन्न-
वृक्ष भी देते रहे छाया
अन्न
आश्रय
हम सभी मिलकर
ख़ूब ऊधम मचाते
गीत गाते,
मिलकर जहाँ बैठ जाते
उसी जगह को
अपनी बना लेते।'
चिड़िया उदास है
बिजली के तार पर बैठी
नानी की बातें
उसके सिर में
फिरकी की तरह घूमती हैं
उसकी आँखों के आगे
लोहे, ईंटों के जंगल के नीचे
दब गये हैं धरती के कण
चिड़िया अपने बच्चे को
अपने साथ खोयी हुई धरती का
गीत गाने के लिए कहती है-
बच्चा चुप है
चिड़िया उदास है।
जगतारजीत पंजाब के सुपरिचित कवि हैं। पंजाबी में दो कविता संग्रह "जंगली सफर" और "रवाब" प्रकाशित एवं पुरस्कृत। यह कविताएँ मजीद अहमद द्वारा हिंदी में अनूदित उनके संग्रह "अँधेरे में फूल जैसी सफ़ेद मेज़" से। कविताएँ हम तक देवेश पथ सारिया द्वारा पहुँची।