जनमेजय की कविताओं को पढ़ते हुए सबसे पहले एक गहरी चुप्पी का एहसास होता है। यह वह चुप्पी है जो किसी पुराने मकान में अकेले बैठे होने पर महसूस होती है। उनकी कविताएं उन जगहों की तलाश में निकलती हैं जो स्मृति की गहराती दरारों में अटी हुई हैं। कविताएं ऐसी जगहों को छूती हैं जो समय के साथ खो गई हैं, लेकिन स्मृति में अपनी पूरी सजीवता के साथ मौजूद हैं। हर पंक्ति में एक अजीब-सी उदासी है, जो धीरे-धीरे पाठक के भीतर उतरती जाती है।
जनमेजय ने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है और वर्तमान में मेरठ, उत्तर प्रदेश में कार्यरत हैं। इससे पहले वे कुछ वर्षों तक जबलपुर में रहे। 'जुम्बिश' में प्रस्तुत हैं उनकी तेरह कविताएँ, जो अपने समय की गवाही देती हैं और एक साथ कई स्तरों पर संवाद करती हैं।
ये कविताएं किसी एक निश्चित विषय या भाव से बंधी नहीं हैं। इनमें जीवन के विभिन्न क्षणों की छवियां हैं, जो कभी स्पष्ट होकर सामने आती हैं, तो कभी धुंधली होकर कोई इशारा करती हुई लगती हैं। कवि की संवेदनशीलता इन छवियों को एक विशेष अर्थ देती है, जो पाठक के भीतर नई यात्राएं शुरू करती है।
- शिवम्
1. अवसाद के महीने
पिछले तीन अवसादमय महीने
जिनका कोई लिखित अनुभव
मेरे पास नहीं है-यकायक धारा में
द्वीप की तरह उभर आते हैं और
मेरी नाव इसके रेत में फँस जाती है।
दिन-यहाँ बोझिल मौन में
एक-दूसरे को रगड़ते हुए
गुजरते हैं,
स्मृतियाँ तनावपूर्ण कोणों का
चुनाव करती हैं,
और गंभीर वासनाएं लपटों
की तरह इठने लगती हैं।
इसके भूदृश्य के खालीपन को
भरने के लिए- मैं अपनी आँखें बंद कर,
अपनी साँसों को चुनौती देता हूँ
-मानों मैं यहाँ अपने सपनों की
कीमत चुकाने के लिए हूँ;
और फिर अपनी नाव उठाकर
रात भर इसके रेत में भटकता हूँ
एक ऐसी नदी के बीच जिसके
दोनों किनारों पर-चिड़ियाँ सोती हैं।
2. बार-बार
वह-वही लड़की थी
पारस की छुअन वाली जो
वासना के दमघोटू घंटों को
संगीत में बदल देती थी,
और मेरी प्रश्नाकिंत पीड़ा
धीरे-धीरे एक लय में
अपना उत्तर अर्जित करने लगती थी।
लेकिन मानसून के एक भारी मौसम
के बाद वह चली गयी
अपने पीछे दीवारों पर
काई की तरह जमे शब्द छोड़कर।
शब्द! जिन्हें अब अक्टूबर का तीखापन
काट-छाँट कर सर्दियों की ओर
ढकेल देता है: बार-बार।
3. क्षितिज का निर्माण
संगीत समाप्त हो जाता है
और पीछे उसकी गूँज रह जाती है
वहाँ! जहाँ उसका मौन रह जाना था।
बिना वजह बजायी गयी
प्रार्थना की घंटियाँ शांत हो जाती है
और पीछे उनका मौन कंपन रह जाता है
उनका उन्माद ईश्वर सोख लेता है।
रात के निस्तब्ध अँधेरे में
कहीं एक पक्षी का स्वर उठता है
और इसके प्रतिउत्तर में- एक दूसरे का
दोनों स्वर मेरी खड़की तक आते हैं,
ठहरते हैं और मिल जाते हैं और वहाँ
एक क्षितिज का निर्माण करते हैं।
क्षितिज! जहाँ मैं अपने विरोधाभासों को
शेष रात के लिए
एक सुसंगति में रख देता हूँ।
4. नौ बार
-और फिर अखबारों की धुँधली सफेदी
हमारी पुतलियों पर हावी हो जाती है;
ठंडी-बुझी टिप्पणियाँ
हमारे ठहाकों और प्रश्नों के बीच
लकीरें खींचती हुई निकलती हैं।
उनीदें झरनों की ऊँचाई उनके
स्वप्नों में ही ध्वस्त कर दी जाती है
और कहावतों के पत्थर
मुरझाकर सूखने लगते हैं।
एक बिल्ली की रहस्यमयी आँखें
इन पर भी वैसे ही झपटती हैं जैसे
बिल्ली अपनी आँखों के ब्रह्मांड पर
झपटती है और कर देना चाहती है
वर्जित सभी आहटों को।
लेकिन एक चित्र के कुछ दृश्य
आँखों के अधूरेपन से छिटक कर,
मोटी दीवारों से रिसते हुए
ओस से सनी रेत पर लोटने लगते हैं;
और फिर उनकी पुतलियाँ जिज्ञासा से चमक
उठती हैं और इन लकीरों को
बिल्ली की तरह लांघती चली जाती हैं
एक के बाद एक
-कम से कम नौ बार।
5. तीन बातें
नदी के सपने में
किताबों के पुल को
सूर्य तपाविश्व
किसी तरह पार करता है।
बस्ती के बाहर चारागाह में
पृथ्वी के कच्चे विचारों को
चरते है पशु।
और मेरी नवीन अस्थियाँ
पुरानी पीड़ा से
टुकड़ा-टुकड़ा कराहती है:
पेड़ों की अनुश्रुत आवाज में,
मिट्टी में दबी रह गयी
जड़ों की तरह।
6. शिल्पगत संशय
कविता का यह असंयोजित विन्यास!
और इस विन्यास में यकायक
अ-समय, अ-स्थान, तुम
सदैव छायी रहने वाली अपनी अनुपस्थिति में
प्रश्नों में एक और प्रश्न।
लेकिन मेरे पास शेष है
मात्र एक थकी स्वीकारोक्ति-
“तुम एक खिड़की तो थी मुझमें
लेकिन मैं घर नहीं
सिर्फ एक मुखौटा था।”
और शायद आज भी हूँ।
मुझे क्या होना चाहिए-
अपना पिता या अपना पुत्र?
शिल्पगत संशय में; मैं
अपने बाप-दादाओं की ओर देखता हूँ :
हाँ या ना -
क्या उनके सामुद्रिक धैर्य से
मुझे लड़ना चाहिए?
उस कोट की पीड़ा के विरुद्ध
जो कभी उनके पास था ही नहीं।
7. मुश्किल
एक प्रचलित गूढ कथा
एक मक्खी को मार देना
कितना मुश्किल होता है, भला (प्रश्नचिन्ह)।
अपने सफ़ेद छोटे पंखों के सहारे
किसी जहाज की तरह ढो रही हैं,मक्खियाँ
सभ्यताओं के अलिखित अनुशासन को;
और हम-अबोध या क्रूर!
जहाज पर सवार हैं
जैसे पार कर जाएंगे
अपने अंदर पहाड़ों की तरह
उगी खाइयों को।
लेकिन- एक प्रश्नचिन्ह।
एक मक्खी को मार देना
मुश्किल क्यों नहीं होता।
8. सहनशीलता के क्षितिज
और अब तुम किसी साँझ के
आर-पार गुजर जाओ जहाँ
मनुष्यों और वृक्षों के बावजूद
आवाजें और हवाएं एक-दूसरे का
अकेलापन थामती हैं:
बातों और रहस्यों के
अंतहीन टुकड़ों के सहारे,
ऐसी अनेकों साँझों के अधूरे, अलक्षित विचार
क्षितिजों पर इकठ्ठा होने लगते हैं;
क्षितिज जैसे-
मनुष्यत्व और देवत्व के क्षितिज
रंगों और कूँचियों के क्षितिज
सपनों और यथार्थो के क्षितिज
प्रेम और समझौतों के क्षितिज
बस्तियों और खंडहरों के क्षितिज
सड़कों,मकानों और घरों के क्षितिज।
और ये क्षितिज ही बन जाते है
हमारे अस्तित्व में सहनशीलता के अंतिम बिन्दु।
इसके बाद प्रश्नों और निरुत्तरता के
क्षितिज पर जीने के लिए मजबूर
हम दिन और रात होते हैं।
9. क्यों
कुछ और पंक्तियों में
इन्हीं के जैसा एक और टुकड़ा:
क्यों- सड़कें खोजते हैं युवा ?
वयस्क- क्यों खोजते हैं मकान ?
और क्यों - नींव की तरह घरों में
उग आने की तीखी सी कामना में
अपने ही अंदर एक के बाद एक
नामों के आश्रयों की बीच
भटकते है- प्रेम वंचित लोग ?
10. पथ प्रदर्शक
अँधेरा एक और पथ प्रदर्शक था
भीड़ भरे जर्जर स्थल में कि
कहाँ नहीं जाना और नाम
मुझे घर नहीं ले जा रहे थे।
असंख्यक नामों की नदी में
धीरे-धीरे गहराता
चमकीले स्टील वाला: काला चाकू;
पुलों की परवाह कौन करता है(एक प्रश्नचिन्ह)।
यह अनायास ही था
(क्योंकि मुझे कुछ और नहीं सूझा)
जब मैं खोजने लगा
ईंटों की मिट्टी में सिमट गये
पहचान के परस्पर विरोधी तत्व;
और मुझे क्या मिला
- दिन की आँखों में रात के आँसू!
- रात की आँखों में दिन के आँसू!
दोनों ही अपने दुखों और योजनाओं में
हमेशा की तरह अस्पष्ट
मानो हवा के दरवाजे
अपने-आप में दीवारें हो।
11. एक पुरानी कहावत
एक पुरानी कहावत:
शहर के उत्तर और दक्षिण में
दो ध्रुवों की तरह रहते थे
- एक बैचन बूढ़ा और
- एक शांतिमय श्मशान।
दुनिया की रोजमर्रा:
सुबह सफ़ेद शर्ट में
अखबार की तरह
दोनों की बाँलकनी में
नीचे से ऊपरआकर
गिर जाया करती थी।
सदियों की बेबसी:
और वे दोनों
बूढ़ा- अपने गुस्से और अधैर्य में
श्मशान- हमारी निराशा और उदासी में
अपने-अपने देवताओं से शिकायत करते कि
क्यों हम
शांति के अबाबीलों को
नहीं बसने देते हैं
उनके उजड़े बगीचों में।
और जैसे अंत या आरंभ :
फिर पार्क में खेलने के लिए
कतार में खड़े बच्चों की
लंबी प्रतीक्षा के बाद
एक दिन आया, मृत्यु से पहले
जब दोनों ने एक-दूसरे को
धूल और राख़ की तरह
अपनी-अपनी बाँहों में समेट लिया।
12. माँ की यादों से
सीढ़ियों पर खड़ी, मैं उतर रही थी
अपनी गहराई में
लेकिन पानी केवल मेरे पैरों
के आस-पास ही गरम था।
मेरा नाम सयानों में
कभी नही गिना गया, फिर भी
उस मकड़ी को मैंने खेलने दिया
अपने शरीर पर
और धीरे-धीरे समुद्री ऑक्टोपस से
मेरे दोस्ती गहरी होने लगी।
फिर मैंने चुना
जंग लगी उस ट्रे को
अपनी माँ की यादों से
नए सफ़ेद कपों के लिए।
गाँव में
दरवाजा रोज़ खुलता था
आज अटक गया है
मैं लौट जाता हूँ
कल फिर आऊँगा।
उन्होंने नहीं सुना
लिखा हुआ नही पढ़ा
कविता बे-अर्थ चली गयी
डूबते सूर्य की रोशनी पकड़
चिड़िया लौट रही है,
चीटियों की कतार चुपचाप
रेंग रही है-अपने दायरे में
साँझ का शोर है
खिड़की पर अभी भी
कुछ रोशनी बची है,
कमरे में बे-आवाज झरती
पत्तियों की आवाज आ रही है।
मुझे अंत नहीं मिला
कल फिर कतार में खड़ा होऊँगा
-आज अपने गाँव में हूँ।