फूलों जैसे पिता
फूलों जैसे पिता
फूल बेचते हैं
शहर की सबसे शांत सड़क पर अकेले बैठ
मालाएँ गूँथते हैं
गुलदस्ते बाँधते हैं
ऊपर सेमल झीनी छाया देता है
कितनी झीनी छाया देता है
बराबर गिरता रहता है
सारा जीवन
वे दूसरे काम करते रहे
जब तक ज़ोर-जाँगर चला
मछलियाँ पकड़ीं
फिर मामा के साथ
कुमारटुलि में रहे एक अरसा
देवी की मूर्तियाँ गढ़ते
सिंगार इत्यादि करते
सभी बारीक़ काम
पूरी श्रद्धा और
सफाई से करते
घर-बार-काम-धंधों के
अनेकानेक विस्थापनों से गुज़रते
कभी अन्यमनस्क नहीं दिखे पिता
इधर उनकी आँखों में
एक किशोर चमक पाता हूँ
तो सोचने लगता हूँ
वे दूसरे काम
कैसे करते रहे
इतने दिन
उन्हें तो बस
फूलों के इर्द-गिर्द रहना था
माली हो सकते थे पिता
या अब की तरह
फूल ही बेचते
या रात भर बरसती रही रातरानी को
सुबह सड़कों से बटोरते
सफाई कर्मचारी हो सकते थे पिता
जैसे किसी
सम्पन्न व्यक्ति को
सब्ज़ियाँ बेचता देख
कौतुक हो
वैसा कौतुक होता है
पिता के बीते जीवन का सोचकर
फूलों की गंध से
बिंधी आत्मा लेकर
वे कैसे रहते होंगे
गंधाते पोखर के पास
फूलों के मिंज जाने पर
बिसूरने वाले पिता
मछलियों को तड़पता
कैसे देखते होंगे
अब्बास* की फिल्मों के
फ्रेम की तरह
सम्भव नहीं है
पिता की उपस्थिति
या कि कल्पना
फूलों के बग़ैर
*ईरानी फ़िल्म निर्देशक
कुछ भी नायकोचित नहीं
जब पड़ी होओगी बीमार
उस मनहूस शहर में अकेली
या ऐसे कहा जाए इसे
कि जब अकेले रहते-रहते
बीमार हो गई होओगी
तब सब काम-धाम छोड़
जो भी पहली रेल मिलेगी
उसे जैसे-तैसे पकड़
भागता हुआ
तुम्हारे पास
नहीं चला आऊँगा
आना चाहूँगा
और नहीं आ पाऊँगा
पहले दफ़्तर में
छुट्टियों की अर्ज़ी दूँगा
फिर उनके मंज़ूर होने का
बेसब्र इंतज़ार करूँगा
जब तलक पहुँचूँगा
शर्मिंदगी से लबरेज़
एक हाथ में
सेब की थैली लिए
किसी तरह
देर-अबेर
कुछ-कुछ
सुधरने लगी होगी
तुम्हारी तबियत
तिस पर आते बखत
गुलदस्ता तो कौन कहे
एक मासूम गुलाब तक लाना
भूल जाऊँगा
जिन्हें लाना बनता ही था
माफ़ी माँगने की नीयत से
या ऐसे में लाते हैं फूल, इसलिए
किसी सर्द सुबह
जब अँगड़ाईयाँ
लेती हुई उठोगी
मुझे अपने
सुंदर पाँवों के पास
खड़ा पाओगी
चौंक जाओगी
यह जानते हुए कि
मेरी समझ में
कुछ नहीं आएगा
मेज़ पर रखे
दवाओं के पर्चे
पलटने लगूँगा
जाने कब से पड़े होंगे
जूठे जो बर्तन
उन्हें लगूँगा माँजने
सारा घर तब
खुदुर बुदुर की
आवाज़ से भर जाएगा
दलिया चढ़ाने के लिए
मसालदानी से निकालूँगा हल्दी
जिसकी गंध तुम्हारी देह से
लिपट जाएगी
चूमूँगा तब तुम्हें
जब यक़ीनन तुम
माफ़ कर चुकी होगी
या शायद
नायकों की तरह
चूमकर ही माँगूँगा माफ़ी!
सिनेमाघर में
क़रीब के सिनेमाघर में
कोई फिल्म आएगी
हम देखने का तय करेंगे
फिर,
आज चलेंगे
-कल चलेंगे
चलेंगे यार,
इतवार को पक्का चलेंगे
होता रहेगा
एक लम्बा वक्फ़ा
बीत जाएगा
ऐसे ही
रोज़ाना आते-जाते
दिखता रहेगा
इस निरंतर
बनते-बिगड़ते-बदलते शहर में
अपनी तरह का बच गया
अकेला सिनेमाघर
हमारे आसपास लोग
उस मुई फ़िल्म के बारे में
जब-तब बात करेंगे
और इतनी बात
कि ग़र कभी
हमारा जाना हुआ
तो कुछ अपरिचित
नहीं रह जाएगा
हम जानते होंगे
कि कब आएँगे
चुम्बन के दृश्य
कब दोनों अलग हो जाएँगे
कब मूँद लेनी हैं आँखें
और कब एकटक देखना है
पर्दे की तरफ़
गए तो फिर
ऐन फ़िल्म उतरने से पहले जाएँगे
खिड़की खाली होगी
बालकनी से कोई चेहरा
झाँकता नहीं मिलेगा
दूर-दूर
कोने-अतरे
बैठे होंगे कुछ जोड़े
तुम चुपचाप
रोशनी बुझने का
इंतज़ार करोगी
मैं रोशनी बुझने से पहले
एकबारगी तुम्हें
देख लेना चाहूँगा
हालांकि नाकाफ़ी रहेगा
यूँ ऐसे देखना
इसलिए अँधेरे में
उँगलियों से देखूँगा
कुछ खुरदुरी दिखोगी
-कुछ मुलायम
ख़ैर, उंगलियाँ भी
नाकाफ़ी रहेंगी
इसलिए होंठों से देखने लगूँगा
बहुत तरल दिखोगी
भूल ही जाऊँगा
क्या देखने आया था
तुम याद दिलाने के इरादे से
दूर होकर बैठोगी
और करने लगोगी
ख़ुद को व्यवस्थित
फिर कुछ देर चुप रहेंगे
कुछ न कहेंगे
इधर-उधर देखेंगे
जाकर भी सिनेमाघर
फ़िल्म कहाँ देख पाएँगे!
छीना-झपटी
नींदें नेमत हैं
और तुम सोते नहीं हो बराबर
बाज़-औक़ात गुस्साती हूँ
फिर मान भी जाती हूँ
कि ख़ूबसूरत लगते हो उनींदे
मगर इस ख़ातिर
जगाए तो नहीं
रख सकती हमेशा
वैसे, मेरा कुछ
पक्का नहीं कह सकते
जगाए भी रख सकती हूँ
क्या पता!
फिलहाल, सो जाते हैं
हुआ तो कभी
छिपा दूँगी स्लीपिंग पिल्स
छीन लूँगी तुम्हारी नींदें
कि तुम ख़ूबसूरत लगते हो उनींदे
छीनने पर आई
तो छीन लूँगी तुम्हारे
हिस्से आई दोपहरें
कि बड़ी मन्नतों-मुरादों के बाद
मिली हैं वे
ऊबने और उदास होने के लिए,
झपकियाँ लेने के लिए
और तुम हो कि
उनकी क़द्र नहीं करते
दफ़्तर में गुज़ारते हो
लंच करते, कॉफ़ी पीते
कभी उससे बतियाते
जिससे बतियाना
कुफ़्र है तुम्हारे लिए
यह भाषा मिली थी तुम्हें
प्रेमपत्र लिखने के लिए
लिखते हो इसमें
क्या कुछ
इधर-उधर का
अनाप-शनाप
बस एक अदद
प्रेमपत्र नहीं लिखते
वह न सही
मेरे बरहना बैरून पर
सिखा सकते थे ककहरा
तुमसे वह भी न हुआ
ग़र मुझसे बनता तो
छीन लेती तुम्हारी भाषा
फिर तुम कितना ही
लड़ते-झगड़ते
झोंटा खींचते मेरा
रोते-बिलखते-छटपटाते
या कि मर ही जाते
साथ मर जाती तुम्हारे
पर तुम्हारी भाषा तुम्हें
कभी न लौटाती।
कुशाग्र अद्वैत बनारस में रहते हैं । दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक। कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित।