होने और न होने के बीच
होनी चाहिए थी सावन में बारिश
पड़ना चाहिए था माघ में पाला
कई बरसों से जेठ में कहाँ उठी लू?
छ: ऋतुओं से धनी इस देश में
सारे मौसम नाराज़ से चल रहे हैं
या नहीं पहुँच रहे हैं सही समय पर
जैसे विलंब से चलती है ट्रेन
जैसे भूख के मिट जाने पर मिलती है रसोई
जैसे आँखों के पथरा जाने पर लौटता है परदेसी
यह सारा जीवन होने और न होने के बीच है
जो वांछित है वह बदलता जा रहा है अवांछित में
घर-परिवार की बातें दोयम दर्जे की हो गईं हैं
इन दिनों लोग मुझसे अधिक मेरे शहर के मौसम का मिज़ाज पूछते हैं
मैंने कई बार ख़ुद से और ज्ञानियों से भी पूछा है
कि लोगों के मन का मौसम अचानक क्यों बदल गया है?
एक-सी आग लगी है पूरी दुनिया में
जितनी बूँदें गिरतीं हैं पसीने की
उससे भी कम रक्त दौड़ता है शिराओं में
सबका रक्त एक सदृश नहीं हैं
यह घिनौना सच है
एक देश सहला रहा है दूसरे देश का तलवा
अब भी अनगिनत गर्दनें पाँवों के नीचे दबी हैं
बहुत उम्दा और नामचीन संस्थान मात्र दिखावे के बैनर हैं
दया, करूणा के प्रचारकर्ता केवल प्रसाद बाँटते हैं
कहाँ मिटती है भूख उनसे?
बेतहाशा लोग भाग रहे हैं सरहदों को लाँघकर
ये सीमा रेखाएँ जो धरती पर खींच रखी है शासकों ने
इंसानों को बंदी बनाने के षड्यंत्र हैं
सुरक्षा के लिए कारागार-मूर्खों की इजाद है
जहाँ खड़ा हो जाए अस्तित्व पर संकट
वहाँ कोई क्यों रूकना चाहेगा
कुछ बातें, कुछ नियम कागजों को सुशोभित करने के लिए हैं सूक्तियों की तरह
ये संकट में उच्चारे जाते हैं मंत्रों की तरह
ये वही मंत्र हैं जो पढ़े जाते हैं राज्याभिषेक के पहले पुरोवाक् की तरह
सत्तासन पर बैठा सिंह जंगल की रक्षा नहीं करता
एक-एक कर सबको ग्रास बनाता है
जो भगदड़ मची है इस दुनिया में वह बिल्कुल बेआवाज है
इसे सुनने के लिए कान लगाना पड़ेगा
कौन यह ज़हमत उठाए?
कितना मधुर संगीत बज रहा है!
कौन उठे इस महफ़िल को छोड़कर?
सबका अपना-अपना भाग्य है-
यह धर्मोपदेशक बक रहा है
पाँचों पकवान भोग लगाने के बाद
इस मरूभूमि में बिल्ली की जान बची हुई है
कौन देता होगा इन्हें चारा-पानी?
वह दबे पाँव पीछे-पीछे आ रही है उदासी की तरह
मैं लिफ्ट में सवार हो सीधे पहुँच गया हूँ वातानुकूलित कक्ष में
यह सोचते हुए नींद नहीं आ रही कि बिल्ली लौटकर कहाँ गई होगी?
एक आग लगी हुई है पूरी दुनिया में सदियों से
अनगिनत लोग इसकी चपेट में भाग रहे हैं इधर-उधर
पसीने की बूँदों से यह आग कभी बुझ पाएगी?
प्रतीक्षा सीखता हूँ किसान से
अधीर लोगों से मिलने की इच्छा जाती रही
हमारे समय के विद्वान आतंकित करते हैं
लगता है कि वे दुनिया को बदलने तक जारी रखेंगे अपना भाषण
आंखें मूंद लेता हूँ इन नेताओं को देख कर
जब भी मन उदास होता है
चला जाता हूँ प्रेमियों के पास
वे झूमते रहते हैं उदासी की ख़ुशी में
जब हावी होने लगती है निराशा
भागता हूँ खेत से लौटते किसानों के पास
वह अभी-अभी लौट रहा है ज़मीन में बीज डालकर
हफ्ते भर वह खेतों की ओर नहीं जाएगा
वह प्रतीक्षा बोकर लौट रहा है
महीनों वह धैर्यपूर्वक लहलहाती बालियों का करेगा इंतजार
आकाश की ओर ताकते हुए बादलों की प्रतीक्षा करेगा
बारिश के अभाव में यदि फसलें नहीं हुईं
वह प्रतीक्षा करेगा अगले साल तक
अधीर कभी नहीं होगा
बचाए रखेगा मन के किसी कोने में आशा का बीज
मैं किसानों से मिलकर उम्मीदों का मुट्ठी भर बीज माँगने जा रहा हूँ
मैं उन्हें अपनी कविताओं में बोऊँगा।
टकसाल से निकले चमकदार सिक्के की तरह
मेरे गाँव में बड़ा आदमी को बड़यादमी कहने का चलन है आज भी
उस ज़माने में बड़यादमी कुर्ते के पाकिट में धोती का चुन्न खोंसकर चलता था
उसके पास इकलौती रेले साइकिल हुआ करती थी
आदमी थोड़ा वजनदार हुआ करता था
साइकिल उसके बैठने से थऊंस जाती थी
और जरकिंग में पड़ने पर सीट करती थी मचर-मचर
उन दिनों जब साइकिल भी स्टेटस सिंबल हुआ करती थी
हर साल बदल जाती थी उसकी साइकिल
जाड़े के दिनों में जब आम आदमी घूमता था नंगे पैर
पछया हवा बहने पर फट जातीं थीं एड़ियाँ कंकरी की तरह
तब वह फटे हुए बिवाई में डालता था बरगद की टहनियों से निकालकर दूध
क्रैक या बोरोप्लस खरीदना उसे फिजूल लगता था
प्रसाधन की चीजें नहीं थीं उसके बजट में शामिल
बरयादमी बड़े शान से चमरौंधे जूते पहनता था
वह धरती को मसलते हुए चलता था
तब उसके जूते करते थे मचर-मचर
वह हर साल गंगा स्नान मेले में बदल देता था अपने जूते
उसके अस्तबल में हिनहिनाते रहते थे घोड़े
हर साल बदल जाते थे उसके जन, मजदूर, हरवाहा
हर साल एक हाथ आगे खिसक जाती थी उसके खेत की मेड़
हर साल बढ़ जाते थे उसके कर्जदार
उसके आसामियों में हर साल होता रहता था इजाफा
एक किलो अनाज पर हल चलाता था उसका हरवाहा
उसकी जीभ पर कभी नहीं बैठते थे किसी के लिए सम्मानसूचक शब्द
समय के साथ बड़यादमी की साइकिल बदल गई चारपहिया में
चमरौंधे जूते बदल गए वुडलैंड में
खेत बदल गया बड़े फार्म हाउस में
वहाँ कोई चैता, पूरबी नहीं गाता
किसी नौटंकी, लोकनृत्य से तो वह जगह है कोसों दूर
सप्ताहांत या मासान्त में सुनाई देती आर्केस्ट्रा की शोरनुमा धुन
वहाँ कोई घूंघट डाल कर लाज शरम के मारे छिप-छिपाकर नहीं जाती
स्याह शीशे वाली गाड़ियाँ गेट के भीतर घुसतीं हैं
और ऊँची एड़ी में अर्धवसना युवतियों की होती है इंट्री
उनके सैंडलों से आती हैं घोड़ों के टाप की आवाज
देर रात तक नीली रोशनी में नहाता रहता है फार्म हाउस
यह ऊँची एड़ियों वाली सेलीब्रिटियों का समय है
बड़यादमी की ओर अंगुली उठाने की कोई जुर्रत नहीं करता
यहाँ सब कुछ आर्गेनिक है, विशुद्ध जैविक
इस सभ्य समाज में जैविकता की आंधी है
यहाँ पहुँचते सभी रंग हो जाते हैं सफेद
बस दो घूँट काफ़ी है कि उपस्थित हो जाते हैं सातों सुर
समय ने सभी कहावतों और लोकोक्तियों का बदल दिया है अर्थ
देखते-देखते एड़ी अलगा कर चलते हुए लोग बड़े आदमी बनने लगे हैं
अब ये हर जलसे में अलग से नज़र आते हैं
टकसाल से निकले चमकदार सिक्के की तरह।
गरीब मौसम का हाल नहीं पूछते
हे घन आनंद!
तुम इतना बरसो कि उस घर में भर जाए पानी
जहाँ एक स्त्री जल रही है जेठ की लपटों में
उसका ग़ौर वर्ण गेहूँआ हो गया है
कोई नहीं कर पा रहा है उसकी सहायता
भागता फिर रहा है उसका पुरुष
जो करता है पुरु की तरह अपनी उर्वशी से प्रेम
चुक गया है उसका शौर्य–धैर्य
आँखें नहीं मिला पा रहा अपनी ही स्वामिनी से
एक मौसम से इस तरह हो चुका है पराजित
कि अपनी ही नज़रों में गिर गया है
सप्ताह भर से चल रही है उसकी प्रार्थना
और आज सुनवाई पूरी हो चुकी है इन्द्रलोक में
शीतल पवन के झोंकों के बीच
आषाढ़ के पहले ही दिनदेवेन्द्र ने बादलों को भेजा है
लेने के लिए यक्ष का हालचाल
कुबेर अब भी चल रहे हैं नाराज
यक्ष करना चाहता है वर्षोपरांत अपनी प्रिया को पुष्पों की भेंट
सोंधी महक आ रही है मिट्टी से
उसका मन बौराता जा रहा है
पगले! थोड़ा धीर धरो
याद करो अपने उन बाँधवों को
जो रहते हैं वर्षों तक वियुक्त
कहाँ होता है उनके मन के मौसम में बदलाव
कभी उन्हें सुना है मौसम का हाल पूछते हुए?
नग्न होने की प्रतीक्षा में
हम सब कीमती लिबास में ढँके नग्न लोग हैं
हम से बेहतर कौन जानता है हमारा नंगापन
जिसे बताते नहीं थकते अपना चंगापन
नग्न होते हुए निश्छल हंसी हंसता है बच्चा
उसे कहाँ परवाह है अपने नंगेपन की?
कितना डरते हैं हम नग्न होने से
हम सब भयभीत हैं एक दूसरे से
जीवन सुबह से शाम तक छिपने और छिपाने का जतन है
बेशकीमती कपड़े, आभूषणों और शहद सिंचित बोलियों के बावजूद
कहाँ कुछ छिप पाता है?
दबी ज़ुबान से ही सही, होती रहती है एक दूसरे के नंगेपन की चटकदार चर्चा
एक घिनौनी हँसी छितराती रहती है हवा में हरदम
काश, हम नंगे हो जाते
सबकी बोलती हो जाती बंद
नंगेपन की चर्चा पर लग जाता पूर्ण विराम
सभ्यताओं में कहाँ है नग्न होने की हिम्मत
नंगा होना साहस का काम है साहब!
हम नग्न होते हुए बहुत हल्के हो जाते हैं तन से और मन से भी
हम बन जाते हैं शिशु और हो जाते हैं बेपरवाह
हमें सीखना होगा नग्न होने का गुर
अभी हम नहीं बन पाए हैं सभ्य और निश्छल
हम कब जुटायेंगे नग्न होने का साहस
दुनिया उस दिन की कबसे प्रतीक्षा कर रही है।
अंधेरे में बारिश
आज वह फिर मार खाकर आयी है
उसकी आँखें लाल हैं और गाल सूजे हुए
होंठ नीले पड़ गए हैं चोट से
फिर भी, बातें करती हुई मुस्करा रही है
कितनी बार समझाया-
भूल जाओ उस शख़्स को जो तुम पर कहर बनकर बरसता है
हर बार की तरह वह चुप्पी ओढ़ लेती है
बाहर हो रही है बारिश घनघोर
मैं उसे कहता हूँ कुछ खाकर यहीं सो जाओ
कुछ रोटियाँ बची हुई हैं हॉट पॉट में
मेरे कहने पर वह उसे डाल लेती है टिफिन बॉक्स में
बारिश थमने का नाम नहीं ले रही
सड़क पर पानी भर चुका है
आँचल में टिफिन को जतन से संभाले हुए
जालीदार छतरी लगाकर तेज कदमों से वह निकल पड़ी है
हाथों में चप्पल पहनकर
बाहर हाथ से हाथ नहीं सूझ रहा है।
वे मूर्ख नहीं थे
उनके पास सिर्फ़ एक जोड़ी धोतियाँ थीं और दो कुर्ते
दो गंजियाँ थी जिसे वे कहते थे गोलगला
वे हमेशा जुमराती मियाँ से कपड़े सिलवाते थे
बगल में दो पाकिट और अंदर में एक चोर पाकिट बनाने की हिदायत दिया करते थे ज़रूर
कभी ज़रूरी हुआ तो कंधे पर अंगोछा रखकर निकल जाते थे सफ़र पर
बहुत मुश्किल से होता था उनके पास एक जोड़ी जूता
जो चला करता था बरसों तक
जब भी किसी को ज़रूरी पड़े कोई सामान
वे संदूक से निकाल कर देते थे खुशी-खुशी
पूरे गाँव में उनके ही पास था हिक्स का बरसों पुराना थर्मामीटर
जब किसी को होता था बुखार, खुद जाकर नापते थे सुबह-शाम
वे कभी किसी पर झल्लाते नहीं थे
चाहते तो वे भी जी सकते थे रइसों का जीवन
किसी को दुत्कार भी सकते थे
कर सकते थे अपने धन-वैभव का प्रदर्शन
पर ये सब उनके मिज़ाज में नहीं था
वे जितने घर के थे, उतने ही पड़ोस के
वे जाने के समय कुछ भी नहीं ले गए औरों की तरह
पर बहुत कुछ दे गए अगली पीढ़ी को
उनकी संतानें ही नहीं, हम भी ले सकते थे उनसे बहुत कुछ
पर हमने उन्हें इस योग्य कभी नहीं समझा
अब उनकी कहानी कौन सुनेगा यहां
जब सिरे से खारिज हो चुके हैं हमारे पारंपरिक मूल्य
ऐसे में उन्हें डाल दिया गया है मूर्खों के समूह में
जबकि वे मूर्ख नहीं थे।
मैं चिड़िया बनना चाहता हूँ
एक तिनका भी न लूँ चोंच में
बिल्कुल हल्के होकर उड़ जाऊँ कोई दूर देश
बेहतर हो कि काम नहीं करे पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण
उम्मीद की बेड़ियों में जकड़ा मन
बार-बार पटक देता है धरती पर
कौन समझता है इन चोटों की गहरी पीड़ा
किसे दिखाई देता है रगों में बहता रूधिर
धीरे-धीरे बनता जा रहा है पानी
इससे पहले कि शिराओं में जम जाए बर्फ
उड़ान की एक कोशिश तो की ही जा सकती है
मुंडेर पर गाती हुई चिड़िया रोज़ देने आती है संदेश
मैं ही अकसर अनसुना कर देता हूँ
बंद कर लेता हूँ झट से घर के कपाट
चिड़िया चौकड़ी भर रही है आकाश में
जब-जब चिड़िया आती है मुँडेर पर
चिड़िया बनने की मेरी इच्छा पंख पसारने लगती है।
ललन चतुर्वेदी सुपरिचित कवि हैं। साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं एवं प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएँ एवं व्यंग्य निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में सहायक निदेशक (राजभाषा) पद पर कार्यरत। लंबे समय तक राँची में रहने के बाद पिछले पाँच वर्षों से बेंगलूर में निवास ।