त्रासदी
बच्चा भूख से कूड़ेदान के पास मरा मिला सुबह
शायद उसे ख़बर थी
कि आला लोग बर्बाद करने में माहिर हैं
और हमेशा से किया भी है
बचा हुआ, बर्बाद हुआ तो कूड़ेदान में ही मिलेगा
इस ओर वह आया था इसीलिए
उसके पैर रोटी से नहीं टकराए
टकराए किसी पत्थर से
जिससे उलझकर वह गिरा
ललछऊं छींटें जो उड़े हैं दूर कई सफ़ेद कमीज़ पर दाग लगा है
भूख पर लिखी कविताओं ने कितनों की भूख मिटाई होगी?
मुझे हमेशा यह लिखते हुए डर रहा है
और इस वक़्त भी है
कि क्या यह सही अर्थ है!
क्योंकि मेरे लिहाज़ से यह लगा है मुझे
कि कहीं न कहीं हर कविता में अर्थ-विच्छेद होता रहा है
उसकी भूख कहीं न कहीं अलग-अलग होती रही है
और अलग-अलग दिखते रहे हैं हम उससे भी
कहीं नहीं तो कविता में ही सही
निजी रूप से
मैं इस त्रासदी में ख़ुद को लिप्त पाता हूँ
और स्वीकारता हूँ
कविता हो सकती है—
प्रेम, दुख, सुख, आशीर्वाद
तो क्यों नहीं हो सकती प्रायश्चित
क्षमा!
विचरण
अपने भीतर एक पाँव पर खड़ा हूँ
भागना चाहता हूँ
किसी ओर
जहाँ विदा की कोई शर्त न हो
जहाँ फटे ढोलक की थाप पर भी कोई सवाल न उठता हो
अप्राकृतिक को भी अधिकार हो प्राकृतिकता का
लेकिन
कैसे भागूँ ?
इसी देह के भीतर एक और देह पल रही है
दोनों की एक-दूजे पर झपट्टा मारने की लालसाएँ
मन को घायल कर देती हैं;
उन्मुक्त हो रहा है मन
हवाओं की भाषा पर
जो कभी भी किसी ओर से आ रही हैं
कहते हुए इधर चलो!
हर रात यह दोहराता हूँ जब तक नींद नहीं आती
और नींद में
छोड़ देता हूँ देह हल्की
हवाओं के हवाले
विचरता रहता हूँ पूरी रात
किसी असमय टूटे हरे पत्ते की तरह
तुम्हें पानी भेज रहा हूॅं
तुम्हें, तुम्हारे ताजे गुलदस्ते के फूलों में हर रोज़ झाँकना चाहिए
हालाँकि तुमने यह सोचा तक नहीं होगा
तितली-भंवरों के अवशेषों सहित गमकता है तुम्हारा राजसी कमरा
तुमने इन्हीं को बचाने की शपथ ली थी
तुमने इन्हीं के जड़ों का पानी सोख लिया है
इस बेहयाई पर डटे रहे कि मृत्यु पर किसका जोर!
फूलों की पीठ पर तुम्हारे भद्दे व क्रूर हाथों के निशान तुम्हारे मतिभ्रष्टों को नहीं
दिखेगा;
सुनो कट्टर सामंत!
मैं उन सूखे हुए फूलों से पनपा हुआ या कहो बचा हुआ तुमसे
अब नहीं छिपूँगा
अपनी जड़ों से निकाल कर तुम्हें पानी भेज रहा हूँ
हिम्मत बने तो इसमें अपना चेहरा निहारना
और असल चेहरा दिख जाए तो उसी में डूब मरना
अन्यथा अपनी क्रूरताओं की फ़ेहरिस्त में एक फूल और जोड़ लेना।
तुम्हें जब देखता हूँ
( एक )
जब इस क्षण के बाद मैं तुम्हें फिर पलट कर देखूँगा तो देखना
मेरी ऑंखों में यह आजीवन रचा-बसा देखने को मिलेगा
कितनी कम शर्तों पर तुमने मुझे प्रेम किया
हालाँकि मेरे शर्त कहते ही तुम झिड़क दोगी लेकिन यह बना है कहीं न कहीं सच।
मैं इन हवाओं के व्युत्क्रम रहा, जो छींटती ही रहीं अब तक मेरे संभाले को
तुमने सहेजा तो लगा
चलनी चाहिए बे-समय हवाऍं
बिगड़ते रहने चाहिए समीकरण
बदलते रहने चाहिए मौसम
तुम्हें जब देखता हूँ
तो लगता है
किसी नाविक की रात में खोई हुई पसंदीदा पतवार
उसे उदास देखकर
नदी किनारे ख़ुद ही लौट आई हो
तुम्हें जब देखता हूँ
तो लगता है
यहाँ डूबूंगा तो
सबसे कुशल तैराकों को भी
मुझसे ईर्ष्या होगी।
( दो )
रात मेरी डायरी को रास नहीं आती
चूंकि मेरे पैरों में पड़े रहते हैं उसके भग्नावशेष
मैंने जिनमें केवल तुम्हें चाहा
चाहा इतना कि पूरा नहीं पड़ा
कोई कविता तुम पर पूरी हो नहीं पाती
लगता है रह गया कुछ
तितलियों की गणना में गड़बड़ी हुई है
सुन्दर एक बार फिर छूटा है
कोई एक कसक ने कसकर पकड़ी है जगह
सबसे बड़ा चित्रकार नाखुश है अपनी सबसे उम्दा पेंटिंग से
तुम्हें जब देखता हूँ
तो लगता है
कि तुम वही रंग हो
जो वह ख़ोज न सका आजतक,
तुम्हें देखता हूँ
तो लगता है
मेरे पास दुनिया का
सबसे कीमती कैनवास है।
(तीन)
व्यस्तताओं और चिंताओं के माथा-पीट समय में मैंने जब भी राहत की साँस ली और
आसमान की ओर देखते हुए मुस्कुराया—तुम थी
तुम्हें जब देखता हूँ
तो लगता है
औषधियाँ मीठी हो सकती हैं
और रोगी की ठीक ना होने की इच्छा जायज़ भी
तुम्हें जब देखता हूँ
तो लगता है
अमानवीय होते हुए जीवन में
एक हरा-भरा संकेत बचा है
उस ओर
जीने के लिए
मुहाने पर
नदी जब विलय हुई समुद्र में
लोगों ने कहा समर्पण देखिए, प्रेम देखिए
मैंने पूछा विकल्प देखिए!
नदी पीछे मुड़ नहीं सकती
हाथ छूटा कर भाग नहीं सकती
विकल्पहीनता में जा गिरती है
यक़ीनन
वो भी प्रेम ना कहती इसे;
अंतिम बेला पर
अपने कूलों पर लिपटकर भरपेट रोई होगी
इच्छा-सूची में बरबस भर दी जाती है समुद्र के नाम की पुनरावृत्ति
यह गुनाह है, की स्वीकृति कब?
ऐसी स्थितियों को यह समाज नकार देता है
नदी हो या स्त्री
मुहाने पर भद्दे प्रेम के नाम पर धकेल दी जाती हैं!
उदास शामों के नाम
(एक)
उन पैरों के निशान ढूँढने में
किसी को दिलचस्पी नहीं
और ना ही वह ख़ुद चाहता है कि कोई उस लीक पर दोबारा चले
जिस पर चलते हुए
उसका जीवन ज़ख्मी हुआ जाता है
जिसके घाव रोज़ भरने के बजाय ताज़ा होते रहते हैं
फिर भी
रोज़ एक बार वह पलट कर पीछे देखता है
जेबें टटोलते हुए।
दुःख का चलन कभी ख़त्म नहीं होगा
इस डर का उसे डर नहीं
वह भयभीत है दुखती रग पर हाथ रखने के चलन से
डरता है हरेपन से
हर रोज़ सूरज ताज़गी देता है
रात उसे आराम
वह लगा है
इन सबसे इतर
जमा हुआ आखिरी पत्थर की तरह
जिसके टूटते ही
पूरा मकान जमींदोज हो जाएगा
कस के पकड़ा है उसने जीवन
जिससे मवाद बह रही है।
(दो)
जिस पैनेपन को कविता में दिखाना चाहता हूँ
उससे रोज़ मेरे देह का कोई ना कोई हिस्सा छिल जाता है
ऐसे में
रोते-गुस्साए इसे त्याग भी नहीं सकता
चूँकि इसी आग में मेरी एक बड़ी हिस्सेदारी मौजूद है
मुझसे भागी हुई चीज़ों के पीछे भागता है मन
जबकि यह भली-भांति जानता है
वह जो छूट गया,
आगे निकल गया
इस शाम उसके पैर नहीं पकड़े जा सकते
हालाँकि अब भी मुझे एक अच्छी कविता लिखनी ही है
मेरे प्रतिबद्धता को ज़रूरत है जिसकी
मैं मुर्दे के सामने
मैं आइने के सामने
एक-सा कैसे लगने लगता हूँ
जिस पैनेपन से शुरु हुई थी कविता
एक अंतहीन खाई में समा जाती है
मेरे कविता की धार पर उदासी चिपट जाती है
मैं जहां से चला
वही लौटा मिला
अब सवाल यह निकलता है—उस शाम चला था मैं?
मामूलीपने में
सिग्नल पर एक बाइक सवार चिल्लाया—तेरी तो लाल बत्ती है!
कहाँ चढ़े आ रहा है?
ड्राइवर ने ट्रक आगे बढ़ाते हुए कहा
रोज़ इसी रास्ते से आता है पता है मुझे
चला जा चुपचाप
वरना किसी दिन सच में चढ़ा दूँगा!
यह एक
मामूली सिग्नल की
मामूली-सी नोंक-झोंक है
पर क्या होगा जो बाइक सवार अगली रात घर ना लौट पाए!
जैसा यह समय है
इस मामूलीपने में भी
जी घबराता है।
कुटिलताऍं
तुम चाहो तो इसे अस्वीकार सकते हो
लेकिन मैं सबसे सरल भाषा में कहता हूँ
तुमने धरती का जो चित्र खींचा उसमें हरे पेड़ नहीं है
आदमी जो रखा काम पर उसमें मनुष्यता गल गई है
रखवाले जो रखे उनकी बंदूकों का मुँह उलट है
तुमने जो भाषा बनाई
वो तुम्हारे अपनों की भी सहोदर न बन पाई
चाहते तो
सरल होती दुनिया
अगर उन्हें कहते सीधे व स्पष्ट
बगैर किसी लंपटता के।
एक दिन
यह सब
जो हो रहा है
यह बस
झिड़ककर-माथा पीटने की एक घटना बनकर रह जाएगी;
और
जब हम रोएँगे,
वे भी रोएँगे
जो हँसते हुए
यह देख रहे हैं अभी!
आत्महत्या
धकेलते हुए दरवाज़ों को
अपने मुँह की ओर से
दुनिया के तरफ
कि कौन कह रहा है—दुनिया देख रही है या दुनिया को दिखाई देता है
कल रात का दबा दरवाज़ा
आज जबरई से तोड़ा गया है
तब जाकर जगी हैं सवेदनाऍं
जगा है विचारवाद।
किवाड़
किवाड़ का वो हिस्सा याद आता है
जिसका एक सिरा लगभग टूटा था
आहिस्ता-आहिस्ता से लगाई जाती थी जिसकी साँकल
जिसे थपकी से भी नहीं बुलाया जाता था
शाम वही हिस्सा टूट गया।
अलग-थलग की विकृतियों में
दूसरा हिस्सा दिनों-दिन सूखता चला गया
जब दादा गुजरे
दादी बचे हिस्से से सटे हुए सिसकती थीं
कहती थीं— नाथ! बीचे मझधार में छोड़ गइला!
उस कमरे में खिड़कियाँ तो थीं
पर उनका मुँह बंद था कई सालों से
बचा हिस्सा
किससे तोड़ता अपना मौन
कैसे कहता दु:ख
फलत:
एक रोज़
वह भी ज़मीन पर आ गिरा
उस दिन
दादी चल बसीं।
नीरज की कविताओं का पोयम्स इंडिया पर प्रकाशित होने का यह पहला अवसर है।