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कुछ अशुभताएँ भी लौटती हैं देह में प्राण बनकर — प्रतिमा मौर्य 'प्रीत' की कविताएँ


प्रतिमा मौर्य की कविताएँ

किसी नए शहर का पता


संस्कार और परंपराओं के नाम पर मिली

उम्रक़ैद की सज़ा पर

कहीं कोई सुनवाई नहीं होती

और न ही अच्छे बर्ताव पर

मिलती है पैरोल की कोई सुविधा


ईश्वर के नाम पर भी

कोई बहाना नहीं मेरे पास

कि उसके नाम पर ही माँग लूँ कोई मन्नत

और निकल पडूँ घर से


संस्कारों की चहारदीवारी में क़ैद मन को

समझाती हूँ डाँट-डपट कर

कि घोर नास्तिकता के बावज़ूद भी

ओढ़े रहना चाहिए था आस्तिकता की झूठी चादर


बुझे मन से देखती हूँ

साँसों पर नज़र टिकाए एक बड़े डाक्टर को

कि अबकी बार कह दे मेरे बस का नहीं यह

और लिख दे दवाओं की पर्ची पर

किसी नए शहर का पता ...



भ्रम की एक खिड़की


दीवार में चुनी खिड़की

पल भर के लिए खुलती है रोज़

और फिर बंद हो जाती है

कभी मुस्कुराते हुए

कभी हवा की उदासियों पर चुम्बन धर।


खिड़की नहीं खुलती रोज़

हवा के लिए

न हवा चलती है रोज़ खिड़की के लिए

मगर इस रोज़-रोज़ के खुलने-चलने ने

क़ायम किया है एक खूबसूरत भ्रम।


जीवन के कठिनतम दिनों में

टूटकर बिखरने के बजाय

खोलनी चाहिए भ्रम की एक खिड़की

और ख़ुद को बचाए रखना चाहिए निर्वात से।



ये भूल जाते हैं


सोचती हूँ

क्या अस्पृश्य होता है किताबों का वह पन्ना?

जहाँ रैदास ख़ुद के परिचय में कहते हैं


"ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।"


तुम ही कहो

क्या पढ़ते-पढ़ाते हुए जीभ इनकार कर देती है

मीराबाई के गुरु का नाम उच्चारित करने से?


अति शुद्धता

उच्चता

धार्मिकता

राष्ट्रीयता का

लबादा ओढ़े लोग

क्या छोड़ आते हैं परीक्षा कक्ष में

उन प्रश्नों के विकल्पों को चिन्हित करने से

जिनके उत्तर निहित होते हैं

रैदास, दादू, रज्जब, रसखान में?


ये भूल जाते हैं

कि इनकी उपलब्धि के अंक-पत्र में

जुड़े होते हैं

कुछ अंक अस्पृश्य विकल्पों के भी।



समय


समय का एक हिस्सा था वह

जो कब का गुज़र गया

उस गुजरे हुए समय के परिदृश्य में

आज भी कई दृश्य

वहीं ठहरे हुए हैं।

*

बचपन से सुन रखा था

कि दिन-रात को

सहूलियत से बाँट रखा है

चाँद-सूरज ने

बिना किसी दंगे-फ़साद के

तुमसे मिलकर जाना

कि चाँद-सूरज का योग शून्य होता है।

*

कभी-कभी बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है

जलते हुए समय में चुप लगा जाना

चुप लगाकर देखना ध्यान से

तुम्हारी चुप्पी जलते हुए समय के लिए पानी है।

*

डरते हुए पूछती हूँ प्रवासी पक्षियों से

तुम जहाँ रहते हो वहाँ सब ठीक तो है न

कट्टी-बट्टी तो नहीं उधर ईश्वर और अल्लाह में

नम आँखों के साथ मुस्कुरा उठते हैं वे

ये कहते हुए कि इतना वक़्त कहाँ है

इधर दोनों व्यस्त हैं रोटी-पानी के जुगाड़ में।


सब शुभ ही नहीं प्रिय !


वह मेरी साँसों की लय जाँच रही थी

मैं पढ़ रही थी उसके चेहरे पर आते-जाते भाव


मेरी हाँ और ना के बीच

वह मेरे लिए बाँध रही थी

हिदायतों भरी पोटली


मैं चुपके-चुपके

मेरे मन से उसके मन को


मुझे मेरी प्रिय चीजों से दूर रखने के लिए

गिनाए जा रही थी वजहें


और मैं !

मन ही मन मुस्कुरा रही थी

एक दिवस औचक मिले एक प्रेमिल चुम्बन पर


साँसो की मद्धम पड़ती लय को साधते

तुम्हारी थमाई नसीहतों की पोटली को संभालते

ढाँढस बँधाती हूँ ख़ुद को


कि सब शुभ ही नहीं प्रिय!

कुछ अशुभताएँ भी लौटती हैं देह में प्राण बनकर !



मैं माफ़ करती हूँ


मेरी स्मृतियों में

सबसे मधुर स्मृति बाबा की है

जो मेरे स्कूल से छुट्टी मार लेने पर

अगले दिन स्कूल जाते हुए कहते

"बिट्टी इ न कहू कि देर होई ग रहा अपने मास्टर साहेब से

कहू कि कल हमरे बुखार होई ग रहा। "


दूसरी पिता की

जब ससुराल वालों के आगे न पढ़ाने की

बात को सिसकते हुए उनसे बोली

तब उनका कहना

"बिट्टू! जैसे इतने साल पढ़ाया दो साल और सही।"


स्मृतियों की इस शृंखला में

हमेशा स्मृत रहते हैं बड़े भाई

जो मेरी गलतियों पर डाँटने के बजाए मौन रहे

और नहीं छोड़ा मुझसे स्नेह करना

साथ ही छोटा भाई

जो इस बात पर झिड़कता रहता है

"कि दीदी जीना सीखो बस यही एक ही तो जीवन है।"


आख़िर में स्मृत करती हूँ

जीवन में आए प्रिय पुरुष को

जिसकी जीवन से भरी बातों ने

मदद की मेरी

मुझे मेरे अतीत को विस्मृत करने में।


स्मृति के इन पुरूषों के सहारे ही

मैं माफ़ करती हूँ उन पुरुषों को

जिनसे जीवन में भर उठी थी

क्षोभ और घृणा।



जीवन की उत्कट अभिलाषा में


त्याग देनी थी ओढ़ी हुई गंभीरता

पसार लेने थे पैर

लोगों द्वारा बुनी गई अपेक्षाओं की चादर से


आदत डाल लेनी थी कर्ण-पटल को

कुछ भी सुनकर अनसुना कर देने की


मुक्त होना था बचपन से ही सुनी

'एक त तितलौकी दूजे नीम चढ़ी!' के भय से


बँध के नहीं रह जाना था

उनकी बरी नैतिकता की रस्सी में


न ही सिमट जाना था

महज दो दिशाओं की सीधी-सरल यात्रा में


जीवन को जीवन के जैसा जीने के लिए

निकल आना था

संस्कार और चरित्र के नाम पर गढ़े व्यामोहों से


आखिर जीवन की उत्कट अभिलाषा में

नवजात छिपकली भी सीख जाती है

पूँछ का मोह त्यागकर

आगे बढ़ जाना।



जैसे


प्रिय!

अपने प्रिय के

आकंठ प्रेम में डूबा तुम्हारा हृदय

जब उकता जाए

तब उसकी स्मृतियों से यूँ उतरना


जैसे मधुर मिलन की

स्मृतियों में डूबी-उतरती है

नवोढ़ा की हथेलियों से धीरे-धीरे मेंहदी


जैसे साँझ ढले

सिंदूरी होकर समंदर में

आसमान से उतरता है सूरज


रात्रि के आगमन से पहले

जैसे चुपके से उतर आती है ओस

तिनके की नोक पर


जीवन की साँझ में

स्मृतियों की ऊँगली थामे

जेहन में ज्यों उतरती है बचपन की याद


कल्पनाओं की दुनिया से

जैसे उतरती है

कागज़ पर कविता धीरे-धीरे


मेरे प्रिय ! तुम्हारा यूँ उतरना

बचा लेगा प्रेम और प्रेमियों को

श्रापित होने से ।



जीवन के इस एकांत में


मेरी स्मृतियों में

वे लोग आज भी जीवित हैं

जिनसे मेरा परिचय

उनके जीवन की अंतिम यात्रा में हुआ


अंतिम यात्रा में मिले लोगों ने

मुझे मुक्त रखा

अपेक्षा-उपेक्षा के बंधन से

स्मृति-विस्मृत के भय से


'मैं तुम्हें भूल तो नहीं जाऊँगी?'

बातों-बातों में तुमसे ये पूछ लेना

मेरे अनन्तर का भय नहीं प्रिय!

इस बात का सुकून है

कि जीवन के इस एकांत में

हम अपनी अंतिम यात्रा से पूर्व मिले ।



य से ज्ञ तक


आज भी हमें याद है

अ से म तक पढ़ना-लिखना

अनपढ़ अम्मा से सीखा


य से ज्ञ तक सबसे कठिन ज्ञान

बड़े मामा जी ने सिखाया

गुलमोहर के नीचे थाली भर राख के साथ


एक दो, वन टू सब अम्मा ने सिखाया


लेग, हैंड,आई, ईयर अम्मा के साथ भाई और दीदी ने


बँधी हुई मुट्ठी पर

कौन सा महीना कितने दिन का होता है

पहले दर्जे में बनवारी मुंशी जी ने सिखाया


उन्होंने ही सुनाई कछुआ- खरगोश , चूहे- बिल्ली वाली

कहानियाँ


छोटी-बड़ी मात्राएँ मनमर्जी से नहीं लगती

ये भाई-दीदी ने सिखाया

मेरे लिखे "लड़का पानी पिता है और मोहन के पीता बहुत अच्छे हैं" को पढ़ते ही हँसकर लोट-पोट होते हुए ।


अलीबाबा के पाठ में रोज-रोज मेरा पढ़ना "वह लड़कियाँ बेचकर अपना गुज़ारा करता था "


इस भ्रम को एक दिन कपिल मुंशी जी ने सुधारा -

यह कहकर -"अरे पागल लकड़ियाँ बेचकर लकड़ियाँ ,लड़कियाँ नहीं।"


काश ! मैं सचमुच पागल होती है और मेरा ये भ्रम ,भ्रम ही रहता।

अलीबाबा भी केवल अपने गुजारे के लिए ही लकड़ियाँ बेचता


पर वह तो अपनी अय्याशियों के लिए बेचने लगा है जंगल के जंगल ही।




बहुत दिन हो गए


माएँ नहीं कह रही है बेटों से

लल्ला ! बहुत दिन हो गये

तुम्हें परदेश गये हुए ।


पत्नियों ने छोड़ दिया है कहना

अपने परदेशी पतियों से

कि साल बीत गए

कब आओगे ?


बच्चे भी नहीं ज़िद कर रहे

अपने परदेशी पिताओं से

अपने मनपसंद सामानों की लिस्ट को लेकर।


परदेश से बरस भर में

लौट आने का वादा कर गए प्रेमी भी

अपने लिए प्रेमिकाओं की निश्चिंतता देखकर

मुकर गए हैं अपने वादे से


इस दुर्दिन में

बेबस पड़े ईश्वर से

आज-कल ये सब यही प्रार्थना कर रहे

कि आपदाओं से महफूज़ रखना ।


 

प्रतिमा मौर्य 'प्रीत'

जौनपुर (उत्तर प्रदेश)

हिंदी अध्यापिका (निजी शिक्षण संस्थान)

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