गाँव में समय
गाँव की सुबह केवल सूरज के उगने से नहीं होती
सुबह होती है दुआर बुहारने की आवाज सुनने से
और दोपहर नहीं होती केवल घड़ी में बारह बज जाने से
दोपहर होती है सूरज के सीध में आने पर
जहाँ बच्चे स्कूल से दुपहरिया की छुट्टी में खाना खाने के लिए आते हैं,
रास्ते में महुआ बीनते
और हथेली के बीच सींक कोंच अनुमान लगा रहे होते हैं
खड़ी दुपहरिया का
गाँव के बच्चे छाता लेकर धूप से नहीं बचते
वे छाँव आने पर कस के बांध लेते हैं मुट्ठी
जहाँ उनके ऊपर ठहर जाते हैं नन्हें बादल
छाँव बनकर
पुरनिया बताते हैं;
चीनी मिल का भोंपू बजने पर
खाना लेकर पहुँचती थीं महिलाएँ
और ट्रेन की आवाज़ सुनकर काम से लौटते थें खेतिहर मजदूर
शाम होती है
पिता के साईकिल की घंटी की आवाज से
जहां सुनते ही दौड़ पड़ते हैं नन्हें बच्चे बुनिया
और संतरे वाली मिठाई की चाह में
कामकाजी महिलाओं,
और किसानों के लिए नहीं होती है फाल्गुन और चैत के महीने में रात
चाँद की रौशनी और पसीने में नहाते
वो करते रहते हैं फसल की कटाई रात भर
अपना अपना वसंत
कुछ गुलमोहर अब भी
टँके हुए है आसमान के पेड़ से
जो खिल रहे हैं थोड़े विलंब से
क्यूंकि उन्हें मालूम है थोड़ा समय लगेगा
कहीं किसी का वसंत आने में
जब कोई जाना चाहे तो उसे जाने देना चाहिए स्वतंत्र
वैसे जैसे एक ऋतु जाने देती है दूसरी ऋतु को
जाने देना चाहिए जैसे पहाड़ रोक कर भी नहीं रोकते नदी को और
वृक्ष फूलों को
किसी के चले जाने के बाद
वो ज्यादा गहरे स्तर पर
बचा रह जाता है हमारे पास
हमारी स्मृतियों में
दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति का अपना अपना वसन्त होता है
जो आता है अपने-अपने समय की दहलीज पर
अपने समय में
वो फूल बड़े विलक्षण होते हैं जो बेसमय खिलते हैं शाखों पर
जिनका मौसम हो चैत्र पर खिले वो आषाढ़ की बूंदों पर
कुछ चीजें समय पर न हों तो उनका कोई अर्थ नहीं रह जाता
लेकिन फिर भी मौसम के विपरीत भी यदि आए कोई वसन्त
तो उसे भी सहर्ष स्वीकार करना चाहिए
जो खुशी अप्रैल के गर्मी में खिला गुलमोहर देता है,
उससे कहीं ज्यादा खुशी
आषाढ़ का इकलौता, रास्ते पर खिला गुलमोहर देता है
बारहमासी कहे जाने वाला पेड़ भी
नहीं फलता बारहमास
फिर कैसे एक ही सुख एक ही दुःख को आजीवन लेकर चलने का ख़्याल रखते हैं हम
कविताओं के अंत ने हमेशा मुझे मारा है,
वैसे जैसे मृत्यु जब आती है और नहीं कहने देती सारी बातें और
अटक जाते हैं शब्द गले में
छीन ही लेती है वो कुछ न कुछ अधूरे शब्द हमसे
मैंने जब जब एक कविता का अंत करना चाहा,
तब तब कविता ने ही मेरी हत्या कर दी है
पहाड़
कितनी परतों में टूटा होगा इसका हृदय
इन टूटे दरकनों के जुड़ने से बना होगा
इसका इतना विशाल हृदय
पहाड़-सी जिंदगी में
हम नहीं होते पहाड़ का सबसे छोटा
हिस्सा भी
सबसे छोटी दुनिया भी
पहाड़ पर चढ़ने पर
सबसे बड़ी और विस्तृत दीख पड़ती है
जहाँ खो जाती है हमारी परछाईं
जिसे ढूँढते हम उठाने लगते हैं मरून पत्थर
और खींचने लगते है आकृतियाँ,
उन्हीं मरून पत्थरों पर
मरून पत्थरों पर मरून पत्थरों की आकृतियाँ मरून नहीं होती
कछुए की पीठ पर रखा पहाड़ टसमसा जाता है
पर पहाड़ पर रहने वाली स्त्री बीन डालती है
पहाड़ की सारी परेशानियाँ
जल, जंगल, जमीन, जीवन लिए
पहाड़!
पहाड़ होकर कितना कुछ होते हैं!
असली दुनिया
सबकुछ सीधा देखने की
इतनी आदत लगी
उल्टी चीजों को नहीं सह सका मन
उन्होंने दुनिया को अपनी मानचित्र पर दिखाया
सीधा,
पर असली दुनिया थी पूरी उल्टी
उन्होंने दिखाई चमचमाती सड़कें
भागती गाड़ियाँ!
पर शहर के पीछे से गुजरती ट्रेन से दिखी
असली दुनिया
ईंटों के जर्जर घर
झरोखों से ताकता उदास मन
भागती गाड़ियों की आवाज़ में
खोई हुई चीखें
जितने कपड़े पहने थी शहर की दुनिया
शहर के पीछे उतनी ही नंगी थी
उल्टे कटोरे की ये दुनिया ऊपर से कालिख पुती
पचक चुकी थी
जिसके ऊपर कुछ भी नहीं रुकता था
उसमें आते पैसे जा रहे थे मानचित्र बनाने वाले की झोली में
हो सकता है जिस धरती को
देख रहे हम सीधे
वो लटकी हो घर में बंधे सिकहर की तरह,
सुनसान
जो हवा के झोंको से हिल जाता हो
और बन बैठा हो मक्खियों के लिए
पृथ्वी
रवि उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले से हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी विषय में परास्नातक हैं।