मैं कौन हूँ
मैं कभी यहाँ से कहीं गई नहीं
फिर यह मेरे भीतर यात्रा कैसी
मैं सुख भोगने में तल्लीन हूँ
फिर यह मेरे भीतर यातना कैसी
कैसे है मेरी देह पर नीलवर्ण चकत्ते
कौन से जन्म के कोड़े हैं
मैं किस देश के मानचित्र का हिस्सा हूँ
मुझमें किस देश की आत्मा का वास
मैंने कितने युद्ध सहे
नरसंहार!
हम नारियों के बलात्कार का लेखा-जोखा दर्ज कहाँ
जब गुड्डन बन मैं सती हुई
पोस्त के मद में मेरी चीखों का गीत क्यों न उकेरा गया
कितनी दफ़े मेरा गर्भपात किया गया
लहूलुहान मेरी कोख अब हरी हो कैसे
मुझसे जन्मीं नवजात कन्याएँ किस किस मिट्टी में दफ़न हैं
मेरे लाल युद्ध की भेंट चढ़े जो
आते हैं मेरे पौ फटते ही और पुकारते हैं
जीवन,
काश हर माह मुझसे रिसता लहू
रक्तबीज हो जाए
हरम में रहूँ या करूँ वास महलों में
मेरे तन को मेरा मालिक भोगे
मेरे हृदय की खोह को कोई पूरे कैसे
यह जन्मों की नितांत व्यथा ढ़ोते
घावों पर औषध लेपते
मेरी आत्मा निढाल हो गई
एक के बाद एक जन्म फिर भी मैं लेती रही
किटी पार्टी
ड्राइंग रूम में सब स्त्रियाँ कहकहे लगा रही थीं
खुसर-फुसर, फिर ठहाका
आज इतवार जो था,
काम काज से छूट, रसोई
बच्चों की चूँ-चूँ से छुट्टी
स्त्रीवाद पर चर्चे हो रहे थे
बराबरी के, हकों के
अधिकार हमारे, मर्ज़ी हमारी,
भजिया, फ्राईज़ गर्मागर्म प्लेटों पर आ रही थी,
भीतर बिसूरने की ध्वनियाँ ,धीमी धीमी,
जो लंबे चौड़े ठहाकों में दबी, बाहर ना पहुँचती
रविवार छुट्टी का वायदा भी भुना जा रहा था पकौड़ों के साथ
धीमी आँच थी
धीमी-धीमी सिसकियाँ
चाय खौल रही थी,
वह आँसू पी रही थी
हवा में कहकहे थे
फेमिनिस्म के चर्चे थे
भीतर से खुशबू खानों की बाहर चली आ रही थी
2023 की बरसात
2023 की बरसात के लिए
जीवन नीरस पड़ा है
बाहर बारिश का कहर है
पाई-पाई जुटा कर
मकान जो बनाया था घर कभी
मकान तक भी नहीं रह गया
मिट्टी से ही सब पनपे थे
आज मलबा हो गए
देवी-देवता से क्या ही लगाएँ गुहार
सदा से बहरी थी सरकारें
प्रार्थनाएँ उकड़ू बैठी दुबक गईं
सदियों के पहाड़ों में कुछ लटकी हुईं
थरथराते होंठों पर चिपकी हुई
नेताओं और अफ़सरों की आलीशान कोठियों के
साग बाड़ी और बैठकों में
पहाड़ों की सहिष्णुता
पिघल कर हत्याएँ अंजाम दे रही है
छाती पीट वो वृद्धा आमा कब तक सिसकियाँ भरे
"काश मुझे उठा लेता इश्वर
मेरे परिवार को बख्श लेता"
इश्वर, देवता और प्रकृति
ह्रदय रहित होंगे शायद
तभी तो दिल न पसीजा जब गुलदस्ते उजाड़ दिए
घरौंदे, ख्वाब, बगीचे, मनुष्य सब गाड़ दिए
अब केवल प्रतीक्षा शेष है
मेरी पुतलियों में सुलगते प्रश्न
मेरी खाली हथेलियों पर रेखाओं की गुत्थी
मेरी छाती पर सैंकड़ों पहाड़ियों का मलबा
शवों का सैलाब किस दिशा गया?
मेरा तुम्हारा कोई अपना कौन सी मिट्टी में मिल गया ?
शायद रुत नयी आ जाए
शायद यह ध्वंस शान्त हो जाए
हत्यारन बरसात काश फिर लौट के न आए
जीवन का मुख्य अध्याय रक्त की गुदड़ी
से प्रारम्भ होकर
गुदड़ी बन जाना ही है
मेरे भीतर की स्त्रियों के लिये
मुझमें रहती है
कई पुश्तें उन स्त्रियों की
जिनके साथ हुई अनगिनत क्रूरताएँ
पितृसत्ता की ठोस दीवारों के भीतर
उन्हें रोंदा गया
वो स्त्रियाँ चीखती
गुहार लगाती न्याय की
हमारे देश का न्यायतंत्र
सदा से ही विलम्ब में फैसले सुनाता आया है
उनकी आँखों से रिसते आँसू
गाल के ऊपर एक परत छोड़ गए
नमक की
उन सब स्त्रियों ने नमक की
खातिर तो होंठ सिल दिए
खुद के
और अपनी आने वाली पीढ़ियों के भी
होंठो को सिलना सरल क्रिया नहीं थी
उन स्त्रियों की चमड़ी पहले ही उधड़ चुकी थी
और फिर इन्होंने चुना
मेरी जैसी और स्त्रियों के भीतर
घर करना
ताकि वे बोती रहें विद्रोह के बीज
आने वाली पीढ़ियों के लिए
उतनी धीमी प्रक्रिया से
जितना एक युग बदलने में समय लेता है
माँ का अवसाद
माँ गुमसुम रहती है
माँ बीमार रहती है
थकन से घिरी, खिड़की को ताकती
माँ ने मनी प्लांट लगाया था, उसकी फ़ैली बेलें
धुड़े से नहा गयी थी
नयी पत्तियां चिलकी चटकी थी, ताज़ी फ्रेश हरी
माँ की इच्छा हो शायद और आराम की
फिर हम बच्चों की कचर-पचर में
माँ की बीमारी नदारद हो जाती
माँ लग जाती कामों में
करीने से सामान लगाती सजावट का
माँ को सुनहरी झालरों का शौक था
किताबें झाड़ती
वह खुद भी सजावट थी इसी ड्रॉइंग रुम में
पापा की ठसक थी जहाँ, वहाँ माँ के ढाढस का बाँध था इनमें
पापा की पुरानी बनियान से पौंछती
माँ मरने के बाद मेरे भीतर चली आयी
मुझे कोफ़्त नहीं होती
माँ की उपस्थिति से,
मैं दसवें माह गर्भ से निकली थी
माँ की छातियाँ सूखी,
माँ आख्यानों से भिड़ी रही ता-उम्र
और अब माँ मेरी शरणार्थी है,
विदा की गई लड़की के घर का नमक तक नहीं चखती
माँओं के बड़े उपकार है हम मनुष्यों पर
जितने जन्म ले लें कोख सी गर्माहट नहीं खरीद सकते
माँ चाहे भीतर रहे,
लेकिन मुझे संज्ञान में तो रखे अपने दुःखों से
मेरी बेटी को अब शिकायत है कि मैं बंद खिड़की में नजरें गड़ाए अपने अवसाद का कारण स्वयं हूँ ...
आख़िरी संवाद
आखिरी संवाद
किस का होगा?
किस से होगा?
सभी गुहार लगा रहे होंगे अपने इष्टों से
मेरे किए का हिसाब पक्का होगा वहाँ
बच निकलने की कोई पगडंडी तक नहीं दिखाई पड़ती
जब सड़कों का प्रस्ताव रखा गया था
एक एक पाटड़ी को मोहताज कर दिया था
अपनी भूमि से एक टुकड़ा न दे सके थे
अब जब पस्त पड़े हो
किस की गाड़ी में जाओगे?
कांधे भी अब दुर्लभ हैं
जाओ किसी अछूत को बुलवा लाओ गाँव के पाताल से
वह नहीं आएगा
पढ़ लिख गया है
सुना है सरकारी बाबू के खूब ठाठ है
औकात क्या है उसकी..
क्या है उसकी औकात?
उसके बाप दादा टुकड़ों पर पले हैं
औकात क्या है मेरी?
डीमों में प्रवेश निषेध है उसका
बावड़ी पर कड़ा पहरा है
सुना है अपने मंदिर बनवा लिए हैं
सरकार ने हैंड पंप लगाए हैं
प्रलय मंडरा रही है
सीने में दहकती आग का गोला प्रविष्ट कर गया है
समय राख हो जाएगा
मैंने बासी रोटी सदा लत्ते धोने वाली महरी को दी है
एक ताज़ी दे देती..
औकात से बढ़कर दिया है!
मेरी औकात क्या है?
अछूतों के भगवान हम जैसों की सुनेंगे क्या...?
डीम : पारम्परिक प्रमुख मन्दिर इष्ट देवी देवताओं के जो पहाड़ी क्षेत्रों में निर्मित हैं
पाटड़ी : छोटे खेत
प्रेम सन्देशा
तुम रेगिस्तान से आए हो
सुना है वहाँ हवा शुष्क चलती है
और रेगिस्तान बेरंग होते हुए भी
रंगीन बना फिरता है
हमारे यहाँ इंद्रधनुष कभी-कभार
आकाश से ताक-झांक करता है
मेरे घर की पहाड़ी से दिखाई पड़ता है
और मुझसे कहता है
"सुनो पहाड़ी लड़की !
उस पार
दूर रेगिस्तान में
तुम्हारा कोई इंतजार कर रहा है
वो तुम्हारे लिए
पहाड़ का इंद्रधनुष होना चाहता है
जिसमें आठवां रंग प्यार का हो
सुर्ख लाल ब्रास के फूलों का
जैसे सर्दी की ठिठुरन में
उस पहाड़ी लड़की के गाल
जो रेगिस्तानी लू से गए हों "
सुनो, रेगिस्तानी लड़के
उस से अगर तुम मिलो
तो कहना
अच्छा, कुछ न कहना
बस यह सुना देना जो मैंने तुम्हें कहा
पहली माहवारी
बाहर युद्ध चल रहा है
बरसते बारूद
हम बंकरों में है ठूँसे हुए
जैसे गाड़ी में ले जायी जाती हैं मुर्गियां
मुर्गियां उड़ने की क्षमता रखती है
लेकिन उनको कत्ल करके
भूनने में जो आनंद है
वो और कहाँ
हम लड़कियाँ हैं
प्रजनन की क्षमता रखती हैं
हम जवान हो जाती है शीघ्रता से
माँ कहती है अक्सर
'अभी तो हुई थी तू अब देख माँ बन गयी'
समय फिसलती रेत है
आज मेरी बेटी की पहली माहवारी है
मेरी देह पर मात्र ढकने लायक ही वस्त्र हैं
वस्त्र मैले हो गए हैं
और मुझे अपनी बेटी को भी
रखना है सुरक्षित
भेड़ियों से
काश मैं उसको फिर से कोख की गर्माहट दे सकती
काश मैं नौ माह और
उसको अपने भीतर छिपा सकती
काश मैं उसके लिए कहीं से साफ़ कपड़े का बन्दोबस्त कर सकती
काश मैं उसको लड़का बना सकती...
कवि परिचय :
ऋचा अपने परिचय में लिखती है "जीवन की उलझनों में खुद फँसी हुई अपने दो बच्चों के झगड़ो को सुलझाती हुई एक माँ। अध्यापन की नौकरी छोड़ चुकी हूँ लेकिन पढ़ने पढ़ाने का सिलसिला जारी है। खाना बनाने और खाने की शौकीन हूँ । पहाड़ों से हूँ लेकिन जीवन के अध्याय घर से दूर लिख रही हूँ लेकिन पहाड़ अपने भीतर सहेजे हुए हैं।