नाउम्मीदी
मुझे उम्मीद थी कि
बुखार में गीली पट्टियाँ लगाऍंगे घरवाले मुझे
पर मैं घर का पता भूल गया।
मेरी ऑंखों से पत्थर गिरते हैं ज़मीन पर
मेरे हमसफर के पाँव में चुभ जाते हैं
वह तेजी से आगे निकल जाता है
मैं रास्ता भटक जाता हूँ।
मुझे उम्मीद थी कि
जब थककर बैठ जाऊँ रहगुजर पर
तो कोई हाथ थामकर घर पहुँचाए मुझे।
मुझे कोई चीन्हता ही नहीं है इस देस में।
मेरी ऑंखें बुखार से नहीं,
जगरातों से लाल है
मुझे उम्मीद थी कि
कोई बिन बताए ही इसे देख लेगा
और अपने कन्धे पर मेरा सिर टिका देगा।
मलाल
यह बीजों के प्रस्फुटित होने का समय था
जब सूरज ने आत्महत्या की।
जुगनुओं ने संभाल रखा है उनका उत्तरदायित्व।
किनारे से बच-बचाकर निकली हैं सर्द हवाऍं,
बादल भी सहम-सहम कर बरसाया है बूँदें कोंपल पर।
कल ख़्वाब में देखा कि पौधा पेड़ हो गया है,
उसकी खाल भी हरी से धूसर हो गई है।
जुगनुओं के लिए घर बनाया है अपने सीने में और
बारिश की बूंदों को मोती की तरह सजा रखा है पत्तियों पर।
सर्द हवाओं से मिलकर झूमता है दिन-रात।
सबकुछ है उसके पास,
बस एक मलाल रह गया—
थककर कोई पथिक बैठा नहीं उसकी छाँव में।
पानी
प्रेम ॲंखियों के कोर से
जब टपकेगा बूँद-बूँद,
उँगली के पोर पर
उसे चाहे सहेज लो।
पानी ही तो है
न्यूरोन से होकर
पूरे बदन में रिस जाएगा।
पानी की किताबें हैं
पानी का दफ्तर
पानी का महल है,
खुसरो का घर है
पानी के उस पार
पानी पर पानी से
लिखा हुआ है हीर का नाम
कल पानी था
आज प्रेम है
कल फिर पानी होगा।
चिता की लकड़ी
मैं चिता की लकड़ी हूँ
मेरा शोक कोई नहीं मनाएगा।
सारे लोग एक बेजान लाश के जलने पर रोएँगे
सब उसी का शोक मनाएँगे
जबकि पहले मैंने बलिदान दिया है
मेरी आहुति दी गई पहले।
मैंने खोए हैं जड़, जंगल
मेरा परिवार बिछड़ा है।
एक दिन सारी नदियाँ
भर जाएँगी मेरी राख से
एक दिन सारी नदियाँ
शोक मनाएँगी मेरी मृत्यु का।
एक दिन मेरा भी पुनर्जन्म होगा
उस लाश की छाती पर
पाँव रखकर खड़ा होऊँगी,
नदियाँ मुझे सींचेगी,
मैं भी बड़ी होऊँगी।
लाश का शोक मनाने वाले
मुझे फूल चढ़ाने आएंगे।
रंग
यहाँ सब चित्रकार हैं
सब अपना-अपना चित्र रचते हैं
और अपना-अपना रंग भरते हैं ।
इससे किसी को क्या गुरेज कि
फलां ने धूसर रंग भर दिया?
सबके ऊपर चटक लाल रंग ही थोड़ी खिलता है।
कुत्ते जैसा जीवन
कुत्ते हाथी के पीछे दौड़ते हैं
उन पर भौंकते हैं
मगर उन्हें काट नहीं सकते हैं।
हाथी के बच्चे खेल-खेल में
कुत्ते के घर पर पाँव रखे देते हैं
और पिल्ले सर्द रात में
किकियाकर मर जाते हैं।
आसमान में उड़ने वाले लोग
धरती पर पेशाब करते हैं।
ज़मीं पर रेंगने वाले लोग
उसे बारिश समझकर
अपनी फ़सल सींचते हैं
और रोटी पकाकर खाते हैं।
उनका त्यागा हुआ मूत्र
हमारे लिए जीवन है।
रूपेश चौरसिया खगड़िया, बिहार से हैं
ईमेल: chaurasierupesh123@gmail.com