अनुतोष
पुनः लौटकर आता हूँ
उस दरवाज़े पर जहाँ लिखा है दाना-पानी
जहाँ बंधी है स्मृतियों की डोर
जहाँ से उठती है सांसों की धुन
जहाँ पर दर्ज है असँख्य सपने
जहाँ पर ग्लानि, आँसू और पश्चाताप का समावेश है
मैं बार-बार बिखरता हूँ
करता हूँ पलायन दुर्दिनों में कि
जिजीविषा और अस्मिता को सम्हाल सकूँ
भाग जाता हूँ किसी पहाड़, नदी या समंदर
डूबते हुए अक्सर टूटता हूँ
तलछट में जाकर तड़फता हूँ
घुटता हूँ, अवसादग्रस्त होता हूँ
एक दुर्गम राह पकड़कर लौट आता हूँ
जैसे लौट आता है सावन
किसी बेमुरव्वत पतझड़ के बाद
लौटना सरल है बनिस्बत पलायन के
शरणगाह पर स्खलन
मुझे ठीक-ठीक याद नही
लगभग तेरह-चौदह चबूतरे हैं
पहले पिता, फिर माँ और अंत में भाई
कुछ दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी, मुहल्ले के लोग
दो पूर्व प्रेमिकाएँ
कौन किस चबूतरे पर जलाया गया
शहर से दूर बने इस श्मशान में आना
अब ना अचंभित करता है, ना उदास
एक कर्तव्य की तरह आता हूँ
किसी के गुजर जाने के बाद,
दो-चार घण्टे यहाँ रहता हूँ
हरियाली निहारता हूँ यहाँ की
शहर भर के लोग जो अति व्यस्त रहते हैं
यहाँ सहजता से मिल लेते है
ज़माने भर की किस्सागोई हो जाती है
कहानियाँ, किस्से, व्यापार, घर से भागी लड़कियाँ
स्मगलिंग, चोरी गई कार या बाइक
पुलिस, विधायक या कलेक्टर के कुकर्म
सब इतने सहजता से ज्ञात होता है
कि मुर्दा कब जल जाता है और
कपाल क्रिया का समय भी आ जाता है
इस वीरान में उतरी हुई शॉल, कपड़े, सिक्के बटोरने वाले
शराब में धुत्त, बेरोजगार, गंजड़ी, भांग की तन्द्रा में डूबे लोग
किसी एक कोने में रेडियो रख हवन का नाटक कर रहे साधु और भोगी
शहर से विस्थापित भिखारी, पागल, घर से भागे वृद्ध, जुआ खेलते युवा
इतनी भीड़ है यहॉं कि एकाकीपन ख़त्म ही हो गया है श्मशान का
उस कोने में रात को लड़के 'सेटिंग' ले आते है अपनी
नारियल, फूलों और शवदाह की पूजन सामग्री के बीच
कंडोम और कच्ची शराब के अद्दे, पौव्वे और फुल भी मिलेंगें
कैसे कोई जलती लाशों की दुर्गंध के बीच काम के चरम को पाता होगा
स्खलित होते समय घिन नहीं आती होगी,
या ज़मीर नहीं धिक्कारता होगा
वे स्त्रियाँ क्या मशीनीकृत हो गई होंगी जो
यहाँ मात्र रति सुख और रुपयों के लिये आती होंगी देर रात में
मैं यहाँ बैठकर ज़ार-ज़ार रो रहा हूँ
अपनी स्मृति को कोसते हुए कि
किस चबूतरे पर जलाया मेरे खून को याद नही
आज तनाव में था
सीने के दर्द से परेशान हूँ
माँ किसी की भभूति लगा देती तो ठीक लगता था बचपन में
वही भभूति ढूँढने आया था कि एक चुटकी ले लूँ
घर हुई तीनों मृत्यु को क्रमशः 35, 16 और 10 वर्ष हो चुके
अब तक तो गंगा में बहाई अस्थियाँ घुल गई होंगी
राख अलबत्ता कही गर्म हो किसी कोने में यहाँ
यह कल्पना ही मुझे भावुक कर देती है
कितना अभागा समय है कि अपनों की राख में
चिंगारियाँ भी नहीं है अब
मैं लौटना चाहता हूँ
यहाँ का समूचा वातायन मुझे रोकता है
दर्द थम रहा है आहिस्ते से
सब कुछ साफ़ नज़र आ रहा है
सारे दृश्य इस सूर्यास्त के संग धूमिल हो रहें है
लौटना भी एक सर्ग है इस जीवन का
आइये लौटने की कामना करें
किस्सा कोताह
मैं शहर दर शहर भटक रहा हूँ
दिल्ली, बम्बई, पूना, नाशिक
हैदराबाद, अमरावती, नागपूर, बालाघाट
भोपाल, छिंदवाड़ा, कन्याकुमारी या कि
कोई देहात, कस्बा या दूरस्थ गाँव
अपने आपको खोज नहीं पा रहा
अनंतकाल तक चलती अनथक यात्रा
पड़ाव पायेगी कभी या
यूँ ही गुजरते हुए किसी राह पर
मील के पत्थर-सा रह जाऊँगा
यात्राएँ सपनों का बोझ है
जो कभी पीठ से नहीं उतरता
संदीप नाईक विभिन्न शासकीय/अशासकीय पदों पर काम करने के बाद 2014 से हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में लेखन-अनुवाद और कंसल्टेंसी का काम कर रहे है। उनके कहानी संग्रह “नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ” को प्रतिष्ठित वागेश्वरी पुरस्कार प्राप्त है.