फूल
दोआब के खेतों में उरराते धूल के बवंडरों में जब ज़िंदगी मज़ाक की तरह घिनघिनाती है
तो बैठ कर याद करना अच्छा लगता है तुम्हारी चलती क़लम और टिक टिक करती कलाई घड़ी को
तुम्हारे अँगने में लहलहाता नींबू हो या सरसराता केला
इस बीहड़ के बियाबां में जब चाँदनी के भूत भटकते, खैनी माँगते हैं
तो वे पेड़ ही सिरहाने बैठ किस्सागोई करते हैं।
जब दिल से उतरने लगती है टीस तुमसे दूर रहने की
तो पूस की शीतहाई में दर्द गरमाहट बन पेट में उतरता है
कहता है मैं न मिली तुमसे तो क्या
मेरे मायके की अमिया चखने ज़रूर आना
देखना की निहिरे का ताला सूख तो न गया
कहना गुसिया दाई को राम-राम
कुलबंता कहार को रात गए पाओ पीते
तो छोड़ आना घर।
यूँ जेठ दुपहरा में बरगदिया तरे चिलम न गाढ़ना
कुब्यार तक मत बतियाना पेड़ों से
दुनिया के लोग ही नही
पेड़ पौधे जानवर भी अब दुख सुनने के काबिल नहीं
तो अगर दुख हल्का करना हो तो
आना मेरे मायके और टेकना माथा गाँव भीतर माँ के मंदिर में
विश्वास की आस न भी हो फिर भी पत्थर से उलाहना देते न हिचकना
जब रात के जुगनू भी अंधेरे में कहीं खो जाएं
और मेरी और अपनी माँ की याद का बर्र एक-सा काटने लगे
तो भोर सवेर दातून चबाते टहलना बाग़ में
चुनना पलाश या बेला या परिजात या फिर बारामासी ही
गजरे बना टाँग देना सिरहाने
मेरी ख़ुश्बू के तिनके-तिनके फैल
तुम्हारा दर्द बांटेंगे, सहलाएँगे
तुम्हारा पता मुझ तक पहुँचाएंगे
और तुम, साथी, फूल हो जाना पर नष्ट कदापि नही।
पिसते घुन का गीत
घंटे बस ढुलकने की-सी चाल में सरपट
दिन धुंधलके के पीछे से खीसे में आराम छुपाए जाते हुए दबे पाँव।
अब और काम नहीं होता।
सोचता हूँ की छोड़ कर बैठू पर आराम नहीं मिलता
पूंजीवादी चक्की में आटा डाले बिना भी आराम नहीं मिलता।
अब और काम नहीं होता।
छुट्टी नहीं मिलती
साँस नहीं अटती अब
और काम नहीं होता।
थकन, चूर बदन चूरतम दमाग सरेआम नहीं होता
अब और कोई, कुछ भी काम नहीं होता।
निठल्ला, सर दर्द, कपूत इन लफ्जों का दिल पर वार हो भी पर अब बेशर्म थकान है
धुआं शाम है
दोस्तों के अनुत्तरित संदेशों का मकाम नहीं होता,
अब और काम नहीं होता।
पहाड़, समंदर, खाली सुबह-सुबह की चाय वक़्त देखे बिना
क्या हर्ज है ऐसे जीने में
ऐसी बातों का ताम-झाम नहीं होता
अब कहीं भी, किसी भी पल काम नहीं होता।
रामचंद्र की कहती
इसने कहा चप्पू चलते रहना ही ज़िन्दगी है।
उसने कहा गोता लगाना ही जीने का फ़न है।
इसने कहा जंगल के बीचो-बीच इक बरगद तले डेरा डाल
उसको पूजना ही जीवन को मायने देता है।
उसने कहा बिना किसी व्यक्ति/वस्तु-विशेष को तवज्जो दे वन-विचरण ही व्यवस्थित जीवन शैली का मार्का है।
इसने कहा बहाव के साथ बहना सुकून है।
उसने कहा बहाव के विपरीत जाए बिना
घिस-घिस कर पवित्रता का स्वप्न बेमानी है।
मैंने सुना, जो इसने कहा।
मैंने सुना, जो उसने कहा।
मैंने सोचा, विचारा, गुना-भाग किया।
मैंने फिर सोचा, विचारा, गुना-भाग किया।
अंततः बात समझ आई।
कहना और बताना ये बस अल्हडपन है।
जीना तो जीना है।
पर ये क्या, यमदूत की घंटी भेंचोद।
आधी-पौनी कविता
आवाजाही के मौसमों में
जब घुप सन्नाटा पसरे घरौंदे में
तो याद करना
तो गिनना उन दिनों को
जब मैं ज़िंदा था आत्मा से
और सपने बस खट्टी यादें न थे
फूल थे, पत्तियों की सरसराहट का जमघट था
आसरा डेहरी ताकता हुक्का गुड़गुड़ाता था
देनदारी की ऋतुओं में
जब कुम्हलाती लताएँ झरती
तो ईश्वर जैसी कल्पना पर भी
डिग भर विश्वास होने लगता
लेनदारी में जब दूसरों के किवाड़ बेवजह खटखटा
पिता थकान से लथपथ आते
तो अम्मा का उन्हें थाली देना
सर्वस्व त्यौहारों का मेला लगता
उन्ही दिनों में,
हाँ हाँ, उन्ही दिनों में
जब अल्पाहार के बाद की नींद
सर्पिणी-सी कलेजे न काटती
हाँ उन्ही रातों में
जब थकन की मालिश
अम्मा की कहानियों के तेल-सी
कानों में रिस-रिस भरती
ऊर्जा-सी, समृद्धि-सी
हाँ हाँ, उन्ही सुबहों में
आरती-सा घर भर महकती
चूड़ी-सा खनकती
चंदन-सा महकती
जब क़यामत का डर
घर में बिखरे सामानों-सा अखरने लगता
तो कुछ दिन चाची आकर ठहरती
मुस्काती,हँसाती, हम सब को इमला-सा सिखाती
कैसे फ़ज्र की नमाजों में
हम जीने की ताकत ढूँढे
कैसे सब्ज़ी वाले की बाँग
या कबाड़ी वाले के सुर से
सींचे, खींचे और पिएँ
मद्धम आँच पर मानो दूध चाय-पत्ती पीता हो
जीवन की उबाइयों से ख़ुद को पोषित करना सीखे।
जब अपने मटियार हाँफे कस्बे की
सँकरी गलियों में
औंधे गिरते मकानों में एक टुकड़ा धूप का
फांका पड़ने लगे तो
घूम आना नदी किनारे
ऐसा पिता ने कभी कहा नहीं
पर माँ जानती है कि अगर वह थोड़े भंवरे और होते
तो ज़रूर कहते अपनी सपाट, सीधी आवाज़ में
और जब ये सब नाकाम हो जाए,
जब हमारे आस-पास भटकते भूत भी
हमें काटने दौड़े
जब गली के कुत्ते भौंकना बंद कर दें
तो जाना नानीघर
जो बिन नानी या नाना
मामा जो मामा कम और पिता ज़्यादा हो गए हो
जाना उनके पास और ढूँढना किलकारियाँ
कुरेदना उन कोनों को जहाँ छुपन-छुपाई
और लूडो की गश्तें लगती
उचेलना उन पेड़ों की छालों को
जो सात बरस पहले ही काट दिए गए
मिलना उन बच्चों से जो कभी आपकी गोद में खिलखिलाए
पर आज समंदर लाँघ पढ़ने जाते हैं।
जीने की किश्तें भरते
जब कभी ब्याज पर गुस्सा आए
तो शहर के उस अनचाहे कोने में
उस बूढ़ी की दुकान पर सिगरेट पी आना
जहाँ से खड़े हो तुम उसे ताकते थे पिछले जनम में
उसकी पहिमंजिला बालकनी में फूलते बेला को
इक चिट्ठी देना न भूलना
याद दिलाना कि जब वह आए कभी तुम्हारे पास
तो अपनी सुरभि तज थोड़ा उसको अगोर ले
बयार बहने पर घुटने घड़ी-सा टिक-टिक करे
तो समझ जाना कि दुख की रैना आजिज हो ख़त्म होने को है
कुछ एक और हफ्ते, मास या साल
कुछ एक और तीज-त्यौहार, मेला-मर्सिया
और फिर उसके बाद?
उसके बाद आना मेरे घर
मेरे कमरे के दाई ओर खुलती खिड़की वाली मेज पर
उठाना उस पर रखी कलम और पूरी करना
ये आधी-पौनी कविता ...
जो भी चाहो
तुम भी मेरे गंदी, हफ्तों न बदली कमीज
या अनधुले बालों को देख
न समझना आलस या गंदगी या मक्कारी
तुम भी मेरे दिन भर बिस्तर पर पड़े रहने
या बहुत सारी सिगरेटें फूँकने को
काम न ढूँढने को न समझना अय्यारी
न समझना मेरी झुँझलाहट
या गुप्प चुप्पी को कुछ और
ये बस शायद आखिरी हथियार हो
जंग के आखिरी नाकाफी हथियार
जो मैं लड़ रहा हूँ लाम की घाटियों में
और हार रहा हूँ हर घड़ी
वक़्त-बेवक़्त मौत का खटका
जीवन को संभालते रहने की
उन सभी आवाजों और तेवरों को
तुम ना समझना गुस्सा या पागलपन
तुम ना समझना की मैं हार गया।
तुम, बस तुम याद रखना साथी
कि जीवन की टुच्ची सच्चाइयों से
जीवन के छोटे मोटे डरो से
डर दुबक बैठना कोई शर्म की बात नहीं।
मत सुनना उन कवियों को
जो कहते हैं लड़ो
जो गाते हैं खड़े रहो
जो बस ज़िन्दगी की जुगाली पर
अपनी रूखी सूखी सेंकने को मजबूर है।
साथी, तुम याद रखना
कि डर के नाखून बढ़ने लगे हैं
जब तुम, वे सब, अपने-अपने
संदूक उठा जीवन के पहाड़ों पर चले जाते हैं
मैं बंद अंधेरे कमरों में ताकता हूँ
उन्ही नाखूनों की परछाइयाँ
परस्पर मेरे बिस्तर के सिरहाने में
जो करती हैं कथकली
निपट अकेले जब नहीं डलता
सुई में धागा तो तिल-तिल घुलता है जी
जब लाख कोशिशों से भी अंडे उबल कर फूट जाएं
तो ज़ार-ज़ार होती है जीते रहने की इच्छा
सो अगर मैं न लौटू किसी शाम
तो समझना की किश्तों की खुशियाँ
जो इस जीवन का पर्याय सही
मेरे लिए कदापि न थी।
संस्कार उषा (जन्म 1995) एक इंजीनियर हैं। उनका जन्म बांदा, उत्तर प्रदेश में हुआ था और वर्तमान में वह दिल्ली में रह रहे हैं।