शंकरानंद हिंदी के सुपरिचित कवि हैं। अब तक उनके तीन कविता संग्रह "दूसरे दिन के लिए", "पदचाप के साथ" और "इंकार की भाषा" प्रकाशित हो चुके हैं। कविता के लिए उन्हें विद्यापति पुरस्कार, राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक पुरस्कार, मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार प्राप्त हैं।
पिता की पुरानी तस्वीर
पिता की जितनी तस्वीरें थी बची हुई
वे धीरे धीरे धुंधली पड़ती जा रही हैं
जैसे बहुत दिन तक धूप में रहने के बाद
कपडे पुराने पड़ जाते हैं
उनकी रंगत मिटने लगती है
फिर वे चिथरों में बदल कर
उड़ने लगते हैं हवा के साथ
कुछ वैसे ही तस्वीरें
अपना घर छोड़ कर जा रही है
पिता के हाथ कहीं से उखड गए हैं
कहीं दाग पड़ गया है चेहरे पर
कहीं सरसों के पीले फूल काले पड़ गए हैं
पत्ते धब्बों में बदल रहे हैं धीरे-धीरे
तस्वीरों में जो धूप थी
वह बहुत तेजी से रात में बदल रही है
तस्वीरें खिंचवाना पिता को अच्छा लगता था
अकसर वे स्टूडियो चले जाते और
तरह तरह की तस्वीरें निकलवाते
तब आज जितना आसान नहीं था यह सब
उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा तब कि
जिस तस्वीर को वे इस तरह संभाल रहे हैं
जिस तरह अपनी उम्र को दर्ज कर रहे हैं
काग़ज के रंगीन टुकड़ों पर
एक दिन यह सब ख़त्म हो जाएगा
यही होता है अक्सर
हर चीज़ की एक उम्र होती है
उसके बाद वह ख़त्म हो जाती है
जिस तरह पिता आज हमारे बीच नहीं हैं
उसी तरह उनकी तस्वीर
हमारा साथ छोड़ कर जा रही है धीरे-धीरे
कुछ नहीं कर पा रहे हैं हम.
नयी भाषा
भाषा की दुनिया बदल गई है
उसमे भी हिंसा का नमक
शामिल हो गया है
जो कुछ भी गला देने को आतुर है
मुझे बोलते हुए सोचना पड़ता है
हालांकि मेरे बोलने की प्रतीक्षा
कोई नहीं करता
जिसके बोलने की प्रतीक्षा करता है
उसकी भाषा दिल दहला देती है
शांत नदी के जल को
रक्त से रंग देती है जो भाषा
आजकल उसी का अभ्यास
ज्यादा हो रहा है!
पेड़ की जगह
इस पृथ्वी पर पेड़ की जगह तय नहीं
उगने को तो वे कहीं भी उग सकते हैं
कहीं भी फल से लद सकते हैं
कहीं भी गिरा सकते हैं अपने फूल
कहीं भी बिछा सकते हैं सूखे पत्ते
फिर एक दिन
उसकी छांव भारी लगती है
उसके पत्ते घर में गंदगी की तरह
जमा होने लगते हैं
फिर एक दिन चिड़ियों की चहक
शोर में बदल जाती है
तब एक दिन लगता है कि
यह तो बेकार ही है
अगर इसे काट दिया जाये तो
लकड़ी भी मिलेगी और
खाली हो जाएगी इतनी जरूरी ज़मीन
इस तरह बसते हैं घर
एक घर को उजाड़ कर अक्सर!
दोस्त
नदियों के पानी सरीखे थे वे
जब आये तो साथ रहे
हम एक पानी में लगाते रहे गोते
एक गिलास में पीते रहे पानी
एक रोटी को तोड़कर
हम खाते रहे आधा-आधा
फिर एक दिन मौसम बदला
तेज बारिश में पानी की लहर आई और
उन्हें बहा कर ले गयी बहुत दूर
मैं भी कहाँ रह सका अपनी जगह
आज उन दोस्तों की कोई खबर नहीं
जिनके साथ हम जीना चाहते थे उम्र भर
आज मैं अलग आकाश का पानी हूँ
वह अलग आकाश का पानी है
हम भटक रहे हैं बादलों की तरह
इस ब्रह्माण्ड में!
रेत की चमकीली
कितनी तो जिन्दगी है बिना रंग के
उनकी नींद रेत की तरह
चमकीली और बंजर है
उनके सपने आवारा पक्षी
कोई ठिकाना नहीं उनकी सांस का
वे हारे हुए बीज हैं
जिनमे उगने की लालसा शेष है
वे अपने लायक मिट्टी खोज रहे हैं
इस पृथ्वी पर सब कुछ संभव है
अगर एक बूंद जिद बाकी हो
रेत से नमी खींच लेने वाली
रंग खोज रहे हैं अपना केनवास
केनवास खोज रहे हैं अपने हिस्से का रंग!
मृत्यु का शोक
शोक का वज़न कितना होता है
कि डूब जाता है एक दिन
दोपहर की धूप के रहते
नदी के किनारे आग की लपट
दूर तक अपनी धाह फेंकती है
धुंधला दिखता है हर दृश्य
जबकि ठीक पहले
यहां हंसी की सुंगध में
घुल रहा था नमक का स्वाद
एक पल में चीजें बदल जाती हैं
एक पल में चहकना
विलाप में बदल जाता है
एक पल में टूट जाता है दिल
उसके टुकड़े की गिनती भी संभव नहीं
शोक का होना अक्सर पता नहीं चलता
जबकि ठीक उल्लास के समय भी
वह घर के एक कोने में खड़ा रहता है
करता है हमले के लिए
सबसे सही समय की प्रतीक्षा।
बुनने की सीख
स्त्री की उम्र में इतनी उलझन होती है कि
एक को सुलझा कर फंस जाती है वह दूसरी में
अपनी देह के बारे में सोचती है तो
दवाइयां याद आती हैं
मन के बारे में सोचती है तो
याद आता है अंधेरी रात का कोई तूफान
जो हमेशा अपनी रफ़्तार में रहता है
सब कुछ तबाह करने को व्याकुल
जब छोटी थी तो समस्याएं छोटी थी
अब बड़ी हुई तो सब मुश्किलें बढ़ चुकी हैं
उसके परिपक्व होने से पहले
रोज वही चूल्हे की आग
रोज वही बुझती हुई राख के बीच
चिंगारी को कुरेदने की जिद
आटे और पानी का अनुपात सही करते हाथ की मेंहदी का रंग उतरता है
हर बार सब्जियां काटते कट जाती है उंगलियां
अक्सर नमक निकालते जो जलन होती है
उसके बारे में ठीक ठीक कोई नहीं बता सकता कि
कितना दर्द होता है इसी बीच किताबें हैं
कलम है
नौकरी है और
अपनी उदासी को झटक देने का साहस भी वहीं कहीं
मां अक्सर बुनती रहती है कुछ न कुछ
उसे देख कर यही लगता है कि
स्त्री के लिए बुनने की कला अपने हिसाब से चीजों को
सही करने की एक कोशिश है
सिर्फ एक मौका जो वह चूकना नहीं चाहती
एक बार गलत हो गया कुछ तो फिर खोल देती है हर फंदा बिना ऊबे
उसे नए सिरे से बुनने के लिए।
आरोप में
आरोप की भाषा में
जितनी धार होती है
वह एक भले आदमी की गर्दन रेत सकती है
इसके बाद माफी की भाषा
एक उजड़ गया घर नहीं बसा सकती!]