स्थापित परंपराओं और सामाजिक अपेक्षाओं की साहसिक अवहेलना में — गहरे अस्तित्व सम्बंधी प्रतिबिंबों से युक्त यशस्वी की यह कविताएँ सतही रूढ़ियों के मूल को परत दर परत उजागर करते हुए पाठकों से उनकी समकालीन महत्त्वहीनता के बारे में विचारशील होने का आग्रह करती हैं।
जाली
वादों-प्रतिवादों-विमर्शों-निष्कर्षों ने
ज्ञान-विज्ञान-भावनाओं-तार्किकताओं ने
अकादमियों-आन्दोलनों-संस्थानों-संगठनों ने
गोष्ठियों-परिचर्चाओं-प्रख्यानों-परीक्षाओं ने
भरपूर सामाजिक-पारिवारिक-व्यक्तिगत प्रयासों ने
मुझमें कोई तोड़-फोड़ की, न की हो
न्याय का पक्षधर तो बनाया ही
कक्षा प्रथम से ही सदाचार सीखना शुरू किया
माँ के पेट में ही पाया था नैतिकता का पाठ
अन्तरात्मा से आवाज़ तब से आने लगी थी
जब स्कूल से घर आ कर सुना था
शाम गए बूढ़ा लोहार
किसी के खेत से टमाटर चुरा कर खाता है
और बासी मठ्ठा पी कर सोता है
बहरैची दादा की पत्तल में अढ़इय्या भर भात
चुल्लू भर दाल, एक फाकी अचार याद है मुझे
इतने वर्षों बाद भी रेखा की अम्मा प्लेट-गिलास
सीढ़ीयों के नीचे चइली,उपलों के पास ही रखती हैं
सम्भारु की पोती बिस्कुट-नमकीन के लालच में
तपती धूप जलती मेड़ से नंगे पाँव आती है
जवाहिर की पतोहू पचास रुपये में
एक ब्लाउज़ सिल देती है
हज़ार रुपये महीने का ले कर बदामा
खाँचा भर बर्तन धो देती है
कितने मेहनतकश दिन-दिन भर हाड़ मास गलाते हैं
और ज़रा-सी बात पर गालियाँ घूँसे खाते हैं
मंगल का उपवास रखने वाला ममेरा भाई
मुस्लिमों से नफ़रत करता है
मौसी का बेरोज़गार बेटा
आईटी-सेल का ट्रोल है
मेरी सहेलियाँ मेरी तरह ही
अपना गहरा, सुन्दर सच
माँ बाप से छुपाती हैं
मेरे दोस्त जो फ़ेमिनिस्ट बनते हैं
कैसे सेक्सिस्ट जोक मारते हैं
मैं अपने लिये ही माँ-बाप से लड़ नहीं पाती
रात में घर से बाहर रह नहीं पाती
मेरा सारा ज्ञान किताबी है
मेरी सारी पक्षधरता जाली है
सदाचार, नैतिकता की बात ही क्या
और अन्तरात्मा की आवाज़?
ख़ैर से वह भी अब कम आती है
मादा भेड़
रात मेरी आँखों में कालख उगलती है
सुबह का सूरज चक्कर काटता ब्लैक होल है
ये सभ्य समाज का कोई खुशनुमा दिन है
दिन के चारों पहर काली किरने बरसती हैं
मेरे काले कुत्ते को
सफेद इज़्ज़तदार कीड़ियों ने चाल दिया है मुझे दुर्विचारों ने
बाकी है मेरे पास फाहे-सी मुलायम चीज़ अनाहत
मैं न यहूदी हूँ न पारसी
आठो पहर धर्मों के प्रतीकों पर
सियाही मलती रंगसाज़ हूँ
मुझ पर दुनिया को रंगीन बनाने की सनक सवार है
मार्च का महीना है दिन तारीख़ याद है मुझे
यह भी याद है कि एथेंस या स्पार्टा की नहीं
शारदा नहर किनारे बसे गाँव की लड़की हूँ
जिसकी रहनुमाई झुंड से जुदा हुई एक मादा-भेड़ करती है
मुझे यक़ीन है ये मुझे उजालो की दुनिया में ले जाएगी
जहाँ दूर आसमानों की दुनिया में जाने का इंतज़ाम नहीं किया जाएगा
इंसान इंसान की जान नहीं खाएगा
खु़श रहा जाएगा
तुम भेड़ों का भी भला हो
तुम्हारा ईश्वर करे तुम्हें मादा-भेड़ के जुदा होने की ख़बर तब तक न लगे
जब तक तुम्हारी दुनिया तुम्हें काली न नज़र आने लगे।
छोटा जीवन
किसी बड़े सुख की
आदिम खोज की निरन्तरता में
बड़ी निर्दयता से भूलते रहे
आए दिनों की छोटी-छोटी गुदगुदाहट
किसी बड़ी प्रेम परिणति की
संभाव्य प्रतीक्षा में
बड़ी कुशलता से करते रहे सन्देह-
अपने कोंछे आए प्रेम की शाश्वतता पर
किसी बड़ी सफलता से
नाम पर महानता की मुहर लगने की रफ़्तार में
बड़ी व्याकुलता से छुड़ाते रहे पीछा
छोटी-छोटी उल्लासित उपलब्धियों से
न जाने कितने अवास्तविक बड़े ने
वास्तविक छोटे-छोटे को
अदृश्य, अयोग्य
निम्न और नगण्य बना दिया
बड़ा जीवन छोटे-छोटे जीवनों में बंटा रहा
बड़े जीवन के दो किनारे थे- अन्त और आरम्भ
हमें न अन्त की ओर जाना था न आरम्भ की ओर
यह तो समय का काम था
हमें छोटे-छोटे जीवनों में जीना था
हम बड़े जीवन के पीछे लपकते रहे
हमने छोटे-छोटे जीवनों को गंवा दिया।
दसौन्ही
चिभ्भी, गिट्टी, अंताक्षरी, तीनपत्ती,
अब भी खेले जाते हैं?
भैंस चराने, चिड़ियाँ उड़ाने,
साग खोटने, गुड़ बाँधने,
अब भी खलिहर जाते हैं?
बुकवा अब भी कोई लगाता है?
अग्रासन अब भी निकाला जाता है?
बर-बरिच्छा ब्याह गौन में
छठ्ठी, बरही, तेरही में
थार-परात, चकला-बेलन
रान्ह-पड़ोस में अब भी माँगा जाता है?
पुरवा में बोलौउआ देने
अब भी कोई जाता है?
पूड़ी बेलने का न्योता आता है?
खाझे, बालूशाही की झँपिया
बैने में अब कहाँ आती हैं
कौन से सन् में कोंहड़ौरी डाली थी
कब की बात है- पूरी आटे वाली सेवईं?
क्रोशिया वाले झालर, पर्दे
अब भी काढ़े जाते हैं?
नवरात्री-शिवरात्री में फूल लेने
सुबह सबेरे बच्चे घर आते हैं?
छान्ह उठाने नई उमर के लड़के जाते हैं?
किसी परदेसी का फ़ोन लैंडलाइन पर आता है?
फोन सुनने कोई पत्नी, माँ या बूढ़ा बाप आता है?
अख़बार पढ़ने, पान खाने, दो गाल बतलाने
काकी काका आते हैं?
श्रृंगार सामानों का खाँचा सर पर रखे
लौहारे की चाची भी
जाने कब से नइ आईं
अँजोरिया रात में हाजत के बहाने
अब भी घंसीले चकरोड पर
भाभियाँ साइकिल चलाती हैं?
सफ़ेद कबूतर या गुड़हल की डाल पकड़ कर
अब भी तस्वीरें खिंचवाती हैं?
इंटर के परीक्षार्थी इम्तेहान से पहले
सेंटर पास की नातेदारी में रुकते हैं?
मुँहनोचवा की अफ़वाहें
अब भी फैला करतीं हैं?
कच्छा बनियान वाला गिरोह
अब भी आफ़त ढाता है?
अब भी बड़का सियार बच्चों को उठाता है?
मुआ चिरई की बोली वृद्धों को
वैसे ही कलपाती है?
मालूम है मँगरू चाचा की
सूप-सिकहउली बनाने की
अब उमर नहीं रही
बहरइची दादा ने आख़री खटोला
किसकी पैदाइश पर बुना था?
खोई चीज़ों का, भटके लोगों का
पता बताने वाले दसौन्ही
इधर का रस्ता भूल गए?
जैकेट टोपी वाले नेपाली
दूर ही से गमकने वाले नेपाली
सुल्तानपुर से जौनपुर तक
ग़ाज़ीपुर से गोरखपुर तक
रंग, हींग और जड़ी बेचने आते हैं?
छत्तों से शहद निकालने वाले,
कठघोड़वा का नाच दिखाने वाले,
इक्के वाले तांगे वाले,
सारंगी पर निरगुन गाने वाले,
ग़ाज़ीमियाँ के लहबर वाले
फगुआ वाले नौटंकी वाले
बाज़ीगर और जादूगर
कौन सी दुनिया से आये थे
किस दुनिया में लोप हुए
किसने इसकी सुध ली है
किसको इसकी ख़बर हुई
जीती जागती इक तहज़ीब
कब रफ़्ता रफ़्ता ख़ाक हुई।
यशस्वी पाठक सुल्तानपुर से हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी पत्रकारिता और राजनीति विज्ञान में परास्नातक किया है।