
पहुँचते-पहुँचते:
खिले हुए फूलों के गुच्छे,
निस्संदेह कितने सुंदर होते हैं।
नव पल्लव की सुगंध लिए,
रंग-बिरंगे,
प्रेम का कितना सुंदर, सरल, स्वाभाविक,
उच्छृंखल उन्माद होता है उनमें,
प्रेम के आगामी अवसाद को वे नहीं जानते।
पर उनकी जड़े देखी हैं कभी?
इनकी जड़े सचमुच कितनी बदसूरत होती हैं।
मिट्टी में लिप्त, समर्पित-सी, मरी हुई सौंधी सुगंध लिए,
उच्छृंखलता को नहीं जानती
कितनी बदसूरत होती हैं सच।
शायद जड़े अक्सर बदसूरत होती है
और दुनिया का ये नियम,
हर चीज पर लागू होता है,
कि जड़ों तक पहुँचते-पहुँचते
केवल संघर्ष रह जाता है,
सौंदर्य मर जाता है।
आत्मदाह
मेरा गुरूर 'आत्मदाह' चाहता था तुम्हारे आत्मसम्मान का,
तुम्हारा गुरूर 'आत्मदाह' चाहता था मेरे आत्मसम्मान का,
हमारा प्रेम 'आत्मदाह' चाहता था हमारे गुरूर का,
कहानी का सारांश यह रहा,
कि हमारे प्रेम ने 'आत्मदाह' कर लिया।
ओ माँ
ओ माँ,
घुँघटा चौकी करने में,
माँ तुम कितनी कुशल हो,
मुझे तो बिल्कुल नहीं आता।
हड्डियाँ तोड़कर परिवार जोड़ने में,
माँ तुम कितनी कुशल हो,
ये कला मुझे बिल्कुल नहीं आती।
धैर्य करने में ओ,
माँ तुम कितनी कुशल हो,
कि मेरे दस हज़ार की सैलरी से लिए गए,
सोने के चुल्लू भर झुमके,
अपनी दोस्तों को दिखाते तुम फूली नहीं समाती...
मुझे बिल्कुल नहीं आता,
मैं तो कितना फूल जाता हूँ,
तुम्हारा स्टील का डिब्बा देख,
कि उस सोने से कीमती हाथों से बना खाना,
दोस्तों से छिपाते हुए मुझे शर्म नहीं आती।
ये जानते हुए कि वर्ग संघर्ष लंबा चलेगा,
पूँजी का धंधा ख़ुद जमेगा,
तुम कितनी कुशल हो,
घरखर्च करने में,
मुझे बिल्कुल नहीं आता।
दूध के साथ ब्रेड हो मक्खन न हो,
तो चीखने लगता हूँ,
और दोस्तों में बराबरी को,
महंगी बीयर न पी लूँ,
तो मानो खाना नहीं पड़ता,
जानते हुए कि यहाँ बराबरी होगी ही नहीं।
माँ तुम कितनी कुशल हो,
खुद बराबर न रहकर,
सबको बराबर रखने में,
मुझे बिल्कुल बराबरी नहीं आती,
फेमिनिज़्म देख चिढ़ जाता हूँ,
पर माँ तुम तो फेमिनिस्ट भी नहीं हो,
हाँ, फेमिनिज़्म तुमसे है।
दो दूनी एक
मेरे पास कुल मिलाकर बयालीस जोड़ी कपड़े हैं,
बीस जोड़ी जूते,
पाँच जोड़ी चप्पल,
और एक ही अलमारी है,
और इन सबसे ठसाठस भरी है।
बंद भी नहीं होती क्योंकि,
उसके दरवाजे पर दीमक जो लग गई है।
खैर वैसे दीमक तो,
उम्र के इस पड़ाव पर,
मुझमें भी लग चुकी...
फिर दो जोड़ी पैर और हैं,
जो अब चल नहीं पाते ज्यादा,
दो जोड़ी हाथ और हैं,
जो लिखते हुए काँपने लगे हैं,
बाकी बचा शरीर अब कुछ खस्ता हो गया है।
इन सब के बीच,
एक दिल भी है देखो,
जोड़ी में नहीं है,
क्योंकि जोड़ीदार भी साथ नहीं रह गया...
धड़कन महसूस करता हूँ उसकी,
दिन रात साँझ सवेरे,
उसके ही दम से ज़िंदा हूँ फिलहाल।
और हाँ,
एक जोड़ी आँखें भी हैं,
जिन्हें किसी का इंतज़ार है,
हालाँकि लौट कर न आने वालों का क्या इंतज़ार...
मगर फिर भी,
जोड़ी जोड़ी में बचा है कुछ,
जैसे दो जोड़ी कान भी,
दो जोड़ी भौहें वगैरह-वगैरह...
और कुछ एक-एक में ही रह गया है,
एक नाक,
एक जीभ,
दो आँखों के लिए एक चश्मा,
और दो जोड़ीदारों ने एक अकेला मैं।
केंद्र में कौन?
मैं जब लिखूँ,
तो प्रशंसा न लिखूँ,
आलोचना न लिखूँ,
सच लिखूँ।
मैं जब पढ़ूँ,
तो न पढ़ूँ
जो मेरी तारीफ में लिखा हुआ है,
पढ़ूँ जो मेरी आलोचना में लिखा है।
मैं जब बोलूँ,
तो न बोलूँ किसी की अनन्य प्रशंसा में,
न बोलूँ किसी के, या अपने संघर्ष पर,
बोलूँ जिसपर साहित्य की नींव हो।
न सराहूँ किसी कवि को अंधश्रद्धा में,
न करूँ तिरस्कार अंधता के साथ,
न मजबूर हो जाऊँ,
किसी वाद का,
सो जब लिखूँ, पढ़ूँ, बोलूँ, सराहूँ, सोचूँ,
मेरे केंद्र में हो साहित्य,
मनुष्य ही हो धुरी,
और मानवता ही हो मूल।
रचनाकार : शिवानी कार्की
(अध्ययनरत परास्नातक, दिल्ली विश्विद्यालय)