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ब्रम्हांड में एक स्त्री होती है जिसमें पूरा ब्रम्हांड होता है


अपूर्वा श्रीवास्तव की कविताएँ


1)


वह स्त्री

जो ढूँढ रही है कोई खाद्य पदार्थ

सड़क किनारे पड़े कचरे में

कर रही है विद्रोह

अपनी जलती आँत के विरुद्ध


वह नहीं करती है श्रृंगार

उसके चेहरे पर जमी हुई है धूल

जिन आँखों में काजल नहीं थमता

उनमें जम जाती है बर्फ

जो पिघलती नहीं

दुर्दिनों के ताप से भी नहीं


पथराई आँखों से देखती हूँ सपना

फिर-फिर कई-कई बार...


फटी लुगदी में लिपटी उस स्त्री का मुस्कुराता चेहरा

याद आता है...

याद आता है कुरुक्षेत्र का शंखनाद,

1857 का विद्रोह,

गुलदाउदी के दो फूल,

दूब, तिनके,

और आकाशगंगा


ब्रम्हांड में एक स्त्री होती है

जिसमें पूरा ब्रम्हांड होता है।


2)


ठंड बढ़ गयी थी

धूप दबे पांव झाँकती भी थी

एक पहर के बाद

किंतु धुँधली दिखाई पड़ती उसे

धरती―

विशाल वृक्षों के कारण


सो छाँट दिए गए पेड़

अधिक ऊँची टहनियों को काट दिया गया


जमीन पर बिखरी पड़ी डालियों के साथ

एक विचित्र आकार का ठोस चिपचिपा घोल

नजर आया

दयनीय! दयनीय!

मेरी आँखों ने ज़ोर से चिल्लाया।

मन में उठती विह्वल ध्वनि कह रही थी

यह किसी चिड़िया का चूजा है

जो टहनियों के काटे जाने से

फफक कर रो पड़ा हो

और ठीक समझा हो उसने बह जाना

अपने ही अश्रुओं संग।


पेड़―

पक्षियों की पृथ्वी है

मानव—

विध्वंसक

स्वयं का, पक्षियों का, पृथ्वी का।


इमारतों का कद

वृक्षों से छोटा होना ही चाहिए

वृक्ष हमारे पूर्वज हैं

और ऊँची इमारतें―

कुल्हाड़ी।


3)


पलंग पर लेटे-लेटे देखती हूँ

मुख के ऊपर अड़ा छत

जिसपर जगह-जगह मकड़ियों ने बुन रखा है जाल

और उसी जाल में फंसे है

मेरे अधूरे ―

बौने सपने


अचानक आँख मूंदकर सो जाती मेरी आँखें

इससे पहले इतनी भयभीत नहीं हुईं

कभी नहीं

मानो आँखों में चुभ रही हो कोई तीक्ष्ण वस्तु


मेरा कान खींचता हुआ उठाता

भोर का कोलाहल

मुझे माँ की याद दिलाता है


आँख खुली

औचक ही उस जाले पर नज़र टिकी

किन्तु इस बार आँखों में भय का स्थान

आत्मविश्वास ने ले लिया

भोर हो चुका था

आत्मग्लानि के लिए यह समय उचित नहीं

(कि किसी का घर तोड़ना महापाप है)

झटपट दो झाड़ू में गिरा दिए मैंने सारे जाले

और मुख पर शिथिल भाव में फैल गयी तुष्टि।


चार दिन बीत चुके हैं

मकड़ियों ने पुनः अपने गिरोह में ले लिया है

मेरे कमरे की छत को

और इस बार अधिक मजबूती से बाँधे है

मेरे सपने―

अपनी जालों में

जिससे भागती हुई मैं मृत्यु में गिरना चाहती हूँ

किंतु मृत्यु मुझे ठोकर मार देती है

ठीक वैसे ही

जैसे मैंने अपने सपनों को मारा था

इस छत के लिए।


आजीविका चल रही है

रहने को छत है

मृत सपनों की लाशें टँगी है जिसपर

प्रतिदिन इसी छत के नीचे

विवशता की चादर ओढ़े सो जाती हूँ

गहरे नींद में ―

सोने को

अंतिम स्वप्न में ―

खोने को।


4)


प्रेम किसी अंतहीन यात्रा का नाम है

उस पुरुष के लिए

जिसके स्वप्न में मौजूद हों

ढेरों कविताएँ-चुनिंदा फ़िल्में

और एक पुरूष


जिसे चूमते हुए

होंठों से अधिक सक्रिय रहती हों उसकी आंखे

जिसके स्पर्श मात्र से फैल जाती हो स्मित

उसके देह की पोर-पोर में

उसी में तिरता हुआ

ढूँढा उसने वह वर्ण जो था सब वर्णों से श्रेष्ठ—

नीलवर्ण


किसी चटकीले नीले रंग की साइकिल सा

नीले कैनवास सा

आसमान-सा

समुद्र-सा

या नेह सा


उसी नीले रंग को शब्दों में समेटता वह

बनता गया रोशनाई

और फैल गया कई-कई बिखरे पन्नों पर

प्रेम का पदचिन्ह बन।


(कोबाल्ट ब्लू देखते हुए)


 

अपूर्वा श्रीवास्तव बगोदर, झारखण्ड से हैं। फ़िलहाल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं ।



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