घर प्रतीक्षा करेगा
जो नहीं लौटे
घर उनकी प्रतीक्षा करेगा
यह सच बार-बार झांकेगा पुतलियों में
जो समा गए धरती में
जिन्हें पी लिया पानी ने
जो विलीन हो गए धूप और हवा में
वे लौटेंगे कैसे कहाँ से
फिर भी घर उनकी प्रतीक्षा करेगा
सृष्टि में किसी के पास नहीं
घर जैसी स्मृति
घर कुछ नहीं भूलता
लोग भूल जाते हैं घर।
सपने अधूरी सवारी के विरुद्ध होते हैं
स्वप्न पालना
हाथी पालना नहीं होता
जो शौक रखते हैं
चमचों, दलालों और गुलामों का
कहे जाते हैं स्वप्नदर्शी सभाओं में
सपने उनके सिरहाने थूकने भी नहीं जाते
सृष्टि में मनुष्यों से अधिक हैं यातनाएँ
यातनाओं से अधिक हैं सपने
सपनों से थोड़े ही कम हैं सपनों के सौदागर
जो छोड़ देते हैं पीछा सपनों का
ऐरे-गैरे दबावों में
फिर लौटते नहीं सपने उन तक
सपनों को कमजोर कंधे
और बार-बार चुंधियाने वाली आँखें
रास नहीं आतीं
उन्हें पसंद नहीं वे लोग
जो ललक कर आते हैं उनके पास
फिर छुई-मुई हो जाते हैं
सपने अधूरी सवारी के विरुद्ध होते हैं।
रुकना
समय रुकता तो पोखर का पानी हो जाता
तुम रुकतीं तो जीवन आकाश हो जाता
हम दोनों साथ होते तो जीवन का छोर नहीं
सिर्फ ओर दिखता
लोग थक जाते ताकते-ताकते
सिर्फ खुशियों का जलधि विशाल दिखता
हँसी का उजास दिखता
पर न समय रुका न तुम!
बस मैं ही रुका रहा स्मृतियों के घाट पर
अंजुरी में जल सँभाले।
चुप्पी का समाजशास्त्र
उम्मीद थी
मिलोगे तुम इलाहाबाद में
पर नहीं मिले
गोरखपुर में भी ढूँढ़ा
पर नहीं मिले
ढूँढ़ा बनारस, जौनपुर, अयोध्या, उज्जैन, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार
तुम नहीं मिले
किसी ने कहा
तुम मिल सकते हो ओरछा में
मैं वहाँ भी गया
पर तुम कहीं नहीं दिखे
मैंने बेतवा के पारदर्शी जल में
बार-बार देखा
आँखे डुबोकर देखा
तुम नहीं दिखे
गढ़ कुण्हार के खँडहर में भी
मैं भटकता रहा
बार-बार लौटता रहा
तुमको खोजकर
अपने अँधेरे में
न जाने तुम किस चिड़िया के खाली खोते में
सब भूल-भाल सब छोड़-छाड़
अलख जगाए बैठे हो
ताकता हूँ हर दिशा में
बारी-बारी चारों ओर
सब चमाचम है
कभी धूप कभी बदरी
कभी ठंडी हवा कभी लू
सब कुछ अपनी गति से चल रहा है
लोग भी खूब हैं धरती पर
एक नहीं दिख रहा
इस ओर कहाँ ध्यान है किसी का
पैसा पैसा पैसा
पद प्रभाव पैसा
यही आचरण
दर्शन यही समय का
देखो न
बहक गया मैं भी
अभी तो खोजने निकलना है तुमको
और मैं हूँ
कि बताने लगा दुनिया का चाल-चलन
पर किसे फुर्सत है
जो सुने मेरा अगड़म-बगड़म
किसी को क्या दिलचस्पी है इस बात में
कि दिल्ली से हजार कि.मी. दूर
देवरिया जिले के एक गाँव में
सिर्फ एक कट्ठे जमीन के लिए
हो रहा है खून-खराबा
पिछले कई वर्षों से
इन दिनों लोगों की समाचारों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है
वे चिंतित हैं अपनी सुरक्षा को लेकर
उन्हें चिंता है अपने जान-माल की
इज्जत, आबरू की
पर कोई नहीं सोच रहा उन स्त्रियों की
रक्षा और सम्मान के बारे में
जिनसे संभव है
इस जीवन में कभी कोई मुलाकात न हो
हमारे समय में निजता इतना बड़ा मूल्य है
कि कोई बाहर ही नहीं निकलना चाहता उसके दायरे से
वरना क्यों होता
कि आजाद घूमते बलात्कारी
दलितों-आदिवासियों के हत्यारे
शासन करते
किसानों के अपराधी
सब चुप हैं
अपनी-अपनी चुप्पी में अपना भला ढूँढ़ते
सबने आशय ढूँढ़ लिया है
जनतंत्र का
अपनी-अपनी चुप्पी में
हमारे समय में
जितना आसान है उतना ही कठिन
चुप्पी का भाष्य
बहुत तेजी से बदल रहा है परिदृश्य
बहुत तेजी से बदल रहे हैं निहितार्थ
वह दिन दूर नहीं
जब चुप्पी स्वीकृत हो जाएगी
एक धर्मनिरपेक्ष धार्मिक आचरण में
पर तुम कहाँ हो
मथुरा में अजमेर में
येरुशलम में मक्का-मदीना में
हिंदुस्तान से पाकिस्तान जाती किसी ट्रेन में
अमेरिकी राष्ट्रपति के घर में
कहीं तो नहीं हो
तुम ईश्वर भी नहीं हो
किसी धर्म के
जो हम स्वीकार लें तुम्हारी अदृश्यता
तुम्हें बाहर खोजता हूँ
भीतर डूबता हूँ
सूज गई हैं आँखें आत्मा की
नींद बार-बार पटकती है पुतलियों को
शिथिल होता है तन-मन-नयन
पर जानता हूँ
यदि सो गया तो
फिर उठना नहीं होगा
और मुझे तो खोजना है तुम्हें
इसीलिए हारकर बैठूँगा नहीं इस बार
नहीं होने दूँगा तिरोहित
अपनी उम्मीद को
मैं जानता हूँ
खूब अच्छी तरह जानता हूँ
एक दिन मिलोगे तुम जरूर मिलोगे
तुम्हारे बिना होना
बिना पुतलियों की आँख होना है।
जितेंद्र श्रीवास्तव
सुपरिचित कवि-लेखक। अब तक कविता के लिए ‘भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार’ और आलोचना के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ सहित हिन्दी अकादमी, दिल्ली का ‘कृति सम्मान’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘विजयदेव नारायण साही पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का ‘युवा पुरस्कार’, ‘डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ और ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ ग्रहण कर चुके हैं।