1. बारिश
उसके बेमौसम होने की
हमें कोई जानकारी नहीं थी
हम उसके देर से भी आने को
दुरुस्त आना समझते थे
एक जाली इतिहासकार की किताब में
उसके रोमांटिक होने का भ्रम
बहुत पहले टूट चुका था
वह हमारे सपनों की
उस अलबेली पतंग की तरह थी
जिसका रास्ता पनीली हवाओं की मानिंद
बदलता रहता था
इतने बरस बीत जाने पर भी
उसके विषय में
हम बस इतना जानते थे
कि एक दिन गहरी नींद में
उसका छापा पड़ेगा
और सदियों पहले इसी बारिश में
छपाक करती हुई वह लड़की
मेरे भीतर से बरामद होगी
जिसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाते वक़्त
इंस्पेक्टर बड़े जोरों से हँसा था।
2. निर्वैयक्तिकता: एक पुनर्विचार
हर जिम्मेदारी से भागने वाला
यही तर्क देता है
महानता का पैमाना नहीं
इसलिए निर्वैयक्तिकता को देखो
कथनी-करनी में अंतर की तरह
एक आदमी बायाँ हाथ देकर
दाहिने मुड़ जाता है
उसका इंडिकेटर ख़राब था कि मंशा
आत्मरक्षा में आए दिन होती हैं हत्याएँ
अनजाने एक पत्ता भी नहीं हिलता
जहाँ रात नहीं ढ़लती
जहाँ सूरज नहीं निकलता
बिना गए ही वहाँ जा रहे हो कवि?
ऐसा क्या पा लोगे
इस ख़राबे से अलग
उस ख़राबे में जुदा
ठोस भी होगा जो और उपयोगी भी
कल्पना के कक्ष से बाहर निकलो
देखो कल्पवृक्ष गायब हो चुका है
देखोगे तो दिखेगा कि तुम्हारा व्रत टूट गया है
और दोषारोपण के लिए न असुर हैं न अप्सरा।
3. ख़ालीपन का सोनोग्राफ
फिर वही गीत नहीं
फिर वह कितना भी पसंद हो
कोई और गीत क्यों चाहिए?
और कोई गीत क्यों नहीं?
लावा जो उबल रहा है
सतह के नीचे
वह किसी खाली जगह से
बाहर आएगा
चीज़ों में बढ़ती जा रही है
जगह लेने की होड़
जबकि खाली हुई जगहें
छोड़ी हुई जगहें नहीं हैं।
4. डेजा वू
यह आम लोगों के सोने का वक़्त है
कोई सोचता हुआ ख़याल के दरवाजे पर दस्तक देता है
हैरानी में झुँझलाया हुआ चेहरा
नींद की खिड़की भी अब भीतर की तरफ़ नहीं खुलती!
सपनें तो इसीलिए हैं कि कोई उन्हें देखे
दिन में फ़ुर्सत नहीं तो रात में देखे
रात में हिम्मत नहीं तो ख़ुद हिम्मत करे
आता है ऐसा भी एक वक़्त
जब किसी और के सपने में कोई और गिर जाता है
और उठकर जाँचता है कि किसी ने देखा तो नहीं
एक दूसरा वक़्त 'ऐसा पहले भी कभी हुआ है
इसे पहले भी कहीं देखा है' का आता है
लेकिन तब पाँव बँधे होते हैं
न चाहते हुए भी अपने जीवन के गड्ढे
हम ख़ुद खोदते हैं
तब लगता है ऐसा पहले भी कभी हुआ है
इसे पहले भी कहीं देखा है।
5. ख़राब टेलिविज़न पर पसंदीदा प्रोग्राम देखते हुए
दीवारों पर उनके लिए कोई जगह न थी
और नये का प्रदर्शन भी आवश्यक था
इस तरह वे बिल्लियों के रास्ते में आये
और वहाँ से हटने को तैयार न हुए
यहीं से उनकी दुर्गति शुरू हुई
उनका सुसज्जित थोबड़ा
बिना ईमान के डर से बिगड़ गया
अपने आधे चेहरे से आदेशवत हँसते हुए
वे बिल्कुल उस शोकाकुल परिवार की तरह लगते
जिनके घर कोई नेता खेद व्यक्त करने पहुँच गया हो
बाकी बचे आधे में
वे कुछ-कुछ रुकते
फिर दरक जाते
जब हम उन्हें देख रहे होते हैं
वे किसे देख रहे होते है
यह सचमुच देखे जाने का विषय है
क्या सात बजकर तीस मिनट पर
एक छोटा पावर नैप लेते हुए
उन्हें अचानक याद आता होगा
कि यह उनके पसंदीदा प्रोग्राम का वक़्त है?
या हर रविवार दोपहर 12 के आस पास
प्रसारित होती कोई फ़ीचर फ़िल्म
या कार्यक्रम चित्रहार देखकर
क्या उनकी ज़िंदगी रिवाइंड होती होगी?
मसलन कॉलेज के दिनों में सुने हुए गीतों की याद
या गीत गाते हुए खाई गई कसमों की कसक
टिन के डब्बे नहीं है टेलीविज़न
फिर भी उन्होंने वही चाहा
जो घड़ियाँ चाहती रही हैं
इतने दिनों तक
घड़ी दो घड़ी, दिखना भर
यानी कोई उन्हें देखे
सिर्फ़ देखने के मक़सद से
जिसे हम मज़ाक-मज़ाक में
टीवी देखना कह देते हैं
जब बिजली गुल हो
उस वक़्त उन्हें देखने से
शायद कुछ ऐसा दिख जाए
जो तब नहीं दिखता
जब टीवी देखना छोड़कर
लोग तमाशा देखने लग जाते हैं
जो टीवी पर आता है।
6. विकल्पहीनता
और तो कहाँ जाता मैं
विकल्पहीनता में आया था
तुम्हारे पास
तुमने मुझे घुड़क दिया
जैसे मज़दूर को
दफ़ा करता है मिल-मालिक
"कल आना"।
7. पुरखे
तुम्हें याद करता हूँ तो
अघाये हुए जानवर की तरह
सूख जाता है गला
यह आख़िर कैसा जल है
जिसे देते हुए बदन जलता है
जिसमें तुम्हारी नश्वरता नकारते
हम भी विलीन हुए जाते हैं
यह कैसी भाषा सीखाकर गए हो
जिसमें एक भूखे कुत्ते की तरह तिलमिलाऊँ
तो लोग पत्थर मारते हैं
हवा में क्या तुम्हारी ही सरसराहट है
जो सर कूचे साँप की तरह
छटपटा रही है
नींद में क्या तुम्हारी ही चहचहाहट
जो टूटते डाल की तरह
चरमरा रही है
क्या हमारी आँखें तुमसे इतनी मिलती है
कि हाड़-मांस के इस विशालकाय शरीर में भी
खंज़रों को बस पीठ दिखती है?
माटी में तुम्हारी ही देह
देह में तुम्हारी ही माटी
हमारी आहटों के आकाश पर
बनकर छाए हो बादल
जिसे अगर चाहे भी तो
हम बदल नहीं सकते
सत्यम तिवारी
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक, तृतीय वर्ष के छात्र।