गुमशुदा
बाजारों से बच्चे ही गायब नहीं होते
कई बार गायब हो जाता है
भरा-पूरा कोना
क्या कहीं लिखी जा सकती है यह प्राथमिकी
कि कैसे भरे बाजार लापता हो गई है
किताबों-अखबारों से भरी पूरी दुकान
सभी हैं अनजान
मेरे लिए तो
यह कोना एक हवाईअड्डा था
जहाँ मिलते थे रंगबिरंगे विमान
और आप लगा सकते थे
ज्ञान-विज्ञान की ऊँची उड़ान
यहीं कई बार मिल जाते थे
अपनी रचनाओं के बाहर भी
कई रचनाकार महान
यह रामदत्त जी की थी दुकान
जिन्हें देखा नहीं कभी हमने
छपे पन्नों को पलटते हुए
लेकिन उनसे अछूती रह जाय
किसी वैचारिक बहस की
नहीं थी ऐसी मजाल
इन दिनों वे लगाने लगे थे जोरदार ठहाका
कहते-यही चलता रहा तो
अगली बार संग्रहालयों में मिलेंगे जनाब
अब यहाँ लगी है जो मशीन
वहाँ कार्ड लगाने पर नोट हैं निकलते
लेकिन क्या कोई बता सकता है
नगर के इस सबसे बड़े बाजार में
किताबें और अखबार कहाँ है मिलते
बाजार में कबाड़
अब सिरहाने नहीं होती घड़ी
जिसकी एक सुरीली धुन
रोज सुबह हमें जगाती थी
कलाइयों पर भी इनके निशान कम होते हैं
फोन नंबरों वाली डायरियाँ भी अब किसी बक्से में बंद हो गई हैं
और गिनती-पहाड़ों से कभी हमें बचाने वाले
कैलकुलेटर भी बीते दिनों की चीज बन गए हैं
मोबाइल फोन ने कर दिया है इन्हें हमारे बीच से बेदखल
वैसे, इनसे भी पहले जब आए थे कंप्यूटर हमारी आसपास की बहुत सारी चीजों ने उनके भीतर ही बना लिए थे अपने घर डाकघर के आसपास सुबह से होने वाली टाइपराइटरों की खट खट भी अब नहीं है
बताते हैं कि जब आए थे सिंथेसाइजर फिल्म संगीत ने की थी क्रांति संगीतकारों ने धीरे धीरे अलविदा कर दिए थे अपने सितार, शहनाई या सरोद के साजिंदे कहीं पढ़ा था कि हाथ काट लिया था कई फिल्मों के पार्श्व संगीत में शामिल ऐसे ही एक वायलिन के प्रसिद्ध संगतकार ने और एक बाँसुरी वाले की बेटी ने कर ली थी बार में नौकरी
हर क्षण बना रहता है खतरा
चलन से बेदखल हो जाने का
अपने सारे गुणों के बावजूद
बाजार में कबाड़ हो जाने का
भेदिए डिब्बे
हमारे समाज और सभ्यता के साथ
टिफिन ने भी कुछ तो तय किया ही सफर
कपड़े की पोटलियों से
चौकोर प्लास्टिक के डिब्बों,
स्टील या एल्यूमीनियम के कई खानों में बदलता हुआ
अब ऐसे दावों में पहुँच गया है
कि उसके खुलने में वही गर्माहट है
जो उसके बंद होने के समय थी
ऐसा न होता तो भी
इन डिब्बों में कुछ ऐसा तो होता ही है कि
उनके खुलते ही खुल जाता है कोई रास्ता
कार्यालय से घर तक का
हम रोज देखते हैं स्वाद और महक को पुल बनते
ये डिब्बे भेदिए भी हैं वे देते हैं घर का हाल कि रसोई आज माँ ने सँभाली या पत्नी ने और यह जो महीना चल रहा है अब खत्म होने वाला है
और कुछ एक जैसे डिब्बों में दिख जाता है उनके ग्राहकों का अकेलापन अपने गाँवों, कस्बों, शहरों से दूर रोटी के लिए, घर की रोटी से वंचित मगर जिनके साथ ऐसा नहीं होता है वे अपने डिब्बों को कभी सुविधा तो कभी मजबूरी का नाम देते हैं आँकड़े बताते हैं कि अब हमारे शहरों में ऐसे डिब्बों के व्यापार खूब फूलते फलते हैं
आलोक पराडकर
पत्रकार और ‘नाद रंग’ पत्रिका के संपादक