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Walk down the memory lane, four poems on childhood

Eight and half sweet smells from my childhood by Ishika Chaturvedi

Henri-Lebasque-Children-with-spring-flowers

Henri Lebasque Children with spring flowers

1. petrichor. i have spent all my years, waiting for the first rain of the season and then looking forward to the rest of them. i inhaled it like an addict craving its next release- breathing in.

2. my dad’s shirt. he lived in a state 288 kms away from me and phone calls never felt like his warmth, and his vague but strong misty scent. i always slipped my arms through it. every night.

3. cigarettes. my uncle was a chain smoker and his ashtray, always filled to the brim. his room reeked of tobacco and drunken nights. but also a soft spot for me and impromptu ice-cream purchases.

4. sweat and cologne. my dance class’s large hall had a perpetual smell of sweat, and acrylic paints, my instructors’ odour was of confidence and love for as long as i danced around them in circles.

5. responsibilities’ absence. imagine a six-year-old- eating chips for breakfast, lunch and dinner, binge-watching Oswald for four hours straight, only getting up to grab a big ball to play with. ah, beautiful.

6. malai kulfi. my nani’s house was in the old part of the city and every evening, a man came riding his cart. ringing a bell, he dipped the heavy sweet in a carton of milk, pulled it out exactly when it dripped.

7. Delhi’s winters. in my youngest years, whenever i got sick, my mother would gather all the children in my colony, put us in an autorickshaw and take us to India Gate. cold nights, frisbees, and picnics.

8. Nainital’s lake. every weekend for six years, the four of us stuffed bags and ourselves, in one car. hollered Shiv’s name and started the drive to our favorite town in the world, where we breathed.

8.5. Just my own. running around home barefoot, stumbling over the air and sporting a grin that could put the moon’s shine to shame.

बच्चों को भरने दो चिड़िया, तितली अपने बस्ते में । उज्ज्वल शुक्ला

Nguyen Phan Chanh

मैंने सबसे अच्छी कविताओं को देखा- बिना शब्दों में बँधे उछलते खेलते हुए, खेतों की मेड़ पर डगमगाकर चलते हुए, बारिश में जानबूझकर भीगने की कोशिश करते हुए और यह सोचते हुए कि युकेलिप्टस के ऊपर चढ़कर आकाश छुआ जा सकता है।

मुझे एक बच्चे ने बताया कि चाँद पर एक बुढ़िया रहती है और तारें टिमटिमाते हैं। बड़प्पन की जेल से थोड़ा सा बचपन आजाद हो गया और बच्चे की हँसी में घुल गया अब चाँद थाल में उतरने लगा और तारे गैस के जलते गोले नहीं रहे मुट्ठी में फिसल आए। प्रकृति सपने में बुदबुदाते हुए कुछ कहती है जिसका अनुवाद सिर्फ बच्चे करते हैं।

आदिम मनुष्य पानी तलाशते थे और नदी घाटी सभ्यताएं विकसित होती थीं। मैं जब देखता हूँ किसी बच्चे को रास्ते पर भीख माँगते हुए तब मैं एक सभ्यता के अंतिम छोर पर खड़ा होता हूँ।

स्कूल की खिड़की से अंदर झाँकता बच्चा एक बच्चे को सम्हालता दूसरा बच्चा और जिसकी माँ किसी और के घर काम करने गई है जिसका बाप सिमेंट से नहा रहा है मड़ई (कच्चे मकान/झोपड़ी) में पड़ा वह तीसरा बच्चा और ऐसे करोड़ों बच्चे भूख और बलात्कार का शिकार होते बच्चे ये बच्चे धरना नहीं देंगे ना लहराएंगे मुट्ठियाँ ये बच्चे एक दिन गिर जाएंगे किसी जादूगर की नशीली रुमाल में और अदृश्य हो जाएंगे।

गाँवों में कहा जाता है पुल तले बच्चों की बली दी जाती है, असल में हर अंधेरे के ऊपर एक पुल बना होता है।

एक गेंद लाओ जो होमवर्क से हल्की हो और एक गुब्बारा जो स्नेह से भरा हो बच्चों को भरने दो चिड़िया, तितली, अपने बस्ते में देखने दो बस से बाहर पीछे जाते पेड़ों को लिखने दो दीवारों पे पहला अक्षर उतारने दो नकल कोयल की कच्चे फल का खट्टापन महसूस करने दो सूंघनें दो गुलाब और गेंदा सुनाओ रातों को कहानियाँ और रहने दो एक बच्चे को अपने अंदर जो उदासी में तुम्हारे गालों पर अपनी छोटी हथेलियाँ रख दे और मुस्कुराकर दूर कर सके तुम्हारा अकेलापन।

जब तक मुस्कुराता रहेगा बचपन । आदर्श भूषण

Childhood

Photograph by Shivam Tomar

पिछली बार जब देखा था एक बचपन:

नन्ही आँखों के सपने बहुत बड़े होते हैं ये काग़ज़ की नाव पर तैर कर नदियाँ लाँघ जाते हैं

ग़ुब्बारों में हवा फूँककर सातवें आसमान पर उड़ जाते हैं

बारहखड़ी सीखते तुतलाते हैं मेलों-बाज़ारों में उँगलियाँ घुमाते हैं काठ के बेलगाम घोड़े दौड़ाते हैं

रेलगाड़ियों की खिड़कियों से झाँकते सपने क्रिकेट-कबड्डी के मैदानों में भागते सपने आँगन की गोलाई दौड़कर नापते सपने

पिछली बार जब देखा था एक बचपन स्लेट पर सात का पहाड़ा लिख रहा था गिलहरियों के साथ लुकाछिपी खेल रहा था ईद के मेले में चिमटा ढूँढ रहा था सीढ़ियाँ गिनता हुआ जवानी की छत चढ़ रहा था

बचपन ने ना जवानी देखी है ना बुढ़ापा जवानी और बुढ़ापे ने देखा है अपना बचपन

दुनिया बचपन से तेज़ नहीं दौड़ सकती अपनी बड़ी आँखों के छोटे सपनों में इन नन्ही आँखों के बड़े सपने क़ैद ज़रूर करना चाहती है

लेकिन होना यूँ चाहिए कि इन्हें तैरने दिया जाए जहाँ तक जाती है नदियाँ इन्हें उड़ने दिया जाए जहाँ तक फैला है आसमान इनके काठ के घोड़ों पर लगाम ना कसी जाए

दुनिया तब तक बची रहेगी जब तक बचपन की आँखों में एक सपना बचा रहेगा

दुनिया तब तक बनती रहेगी जब तक बचपन बेतुकी फ़रमाइशें करता रहेगा जवानी से

दुनिया तब तक जीने लायक़ रहेगी जब तक मुस्कुराता रहेगा बचपन।

There’s a fascinating world out there BY riya sharma

Traditional Games

Period 4, Duration: 45mins paath: рем

Iss kavita ke madhyam se lekhika kehna chahti hain,

There’s a fascinating world out there that’d love to have you as a part of it Don’t let it consume you in the worst possible way and don’t drink up five cups of coffee in a row if it does

You emptied yourself out on the last bench by scribbling his name on a wooden desk until the compass, you could use to create full moons and planetoids in your art notebook, shatters and regrets being bought by someone as cynical as you

It’s okay if his hair smells like the aroma of your daadu’s famous Kesar kheer It’s okay if his hands on your butterscotch skin felt right, if something feels right doesn’t mean it has to be

It’s okay if that insolent excuse for a teacher, slut shames you for the length of your skirt being too ‘eye catchy’, enthralling young naive boys and depriving them of more important stuff like football. Twenty years from now, she’ll be sitting in the same cabin, living the same mundane life, while you climb the stairs of the stage to claim your 5th award in a row for the most promising ‘_________’ The universe will fill the blanks and jump the commas for you

Don’t let your love-craving heart kill your spirits if no one sat with you during lunch today There are things teenagers under-appreciate. Teenagers: Long lost children of romanticism and modernization, who never shred a tear while reading the last three stanzas of Premchand’s Idgah or felt beautiful while turning the pages of Tagore’s Kabuliwala You don’t need them You are a book of Faiz’s nazm that lost its way in the glorified chaos of a Harry Potter fantasy column. You are an unstoppable revolution sitting in the middle of a cafeteri… * the bell rings *

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