पिता के जाने के बाद जैसे – तैसे संभाल लिया था मैंने खुद को माँ को भी संभाल ही लेती जानती हूँ “जीवन बस एक भ्रम है मृत्य ही अंतिम सत्य”!
पर उसी बीच जब मैंने देखे माँ के सूने हाथ सूना माथा सूनी मांग सुन्न पड़ गई थी मैं!
दिन बीते साल बीते पर ये सूनापन इतना गहरा था कि अब भी पसरा पड़ा रहता है माँ के चेहरे से लेकर घर के कोने – कोने तक (माँ के चेहरे का सूनापन घर का सूनापन होता है) मैं लाख कोशिशों क बाद भी इसे भर नहीं सकती!
जब-जब माँ का चेहरा देखती हूँ धक्का लगता है हर बार उतनी ही तेजी से भीतर कुछ टूट सा जाता है शायद पिता के ना होने का भ्रम?
मन मानता है कि पिता अब भी यही हैं किसी ना किसी रूप में चूंकि प्रेम कभी नहीं मरता फिर क्यों मिटा दिया जाता है प्रेम का श्रृंगार?
मेरे पूर्वजों मुझे क्षमा करना मैं अज्ञानी हूँ रीति – रिवाज़ो के पीछे छिपा महान कारण नहीं जानती जानती हूं तो सिर्फ़ इतना कि “मृत को देखने से कहीं ज्यादा आघात होता है जीवित को पल – पल मरते देखने में!
मैं पूछती हूँ क्या मतलब है ऐसे रीति – रिवाज़ो का जो एक जीवित इंसान की जीवंतता ही छीन लें?
अंशिका शुक्ला