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बोन्साई वाले बरगद । उज्ज्वल शुक्ला

मैंने देखा था बड़े बरगद का काटे जाना आज भी एक बड़ा दांतेदार आरा मेरे मस्तिष्क पर अपने दांत फँसाए हुए है

पूरे गाँव में एक अकेला बरगद बाकी था ढोल का पोल बने तनों से निकली आवाज़ दूसरे गाँव तक गई जैसे पहली बार पनही पहनकर, लाठी लेकर धोती का एक सिरा कुछ लटकाए बाबा पैदल शहर गए थे

लोगों को भ्रम था कि बरगद की जड़़े अक्सर बाहर आ जाती हैं फैल जाती हैं अंडरग्राउंड सुरंगों से पार कर जाती है नदियाँ और डाक जाती हैं पहाड़ों को। परन्तु मुझे यकीन था कि एक दिन ये अकेला बरगद दूसरों से मिलने जाएगा पूरे गाँव को उखाड़ते हुए आसमान को खींचकर धराशाई करते हुए

बचे खुचे गाँव में बचे रहेंगे नीम, पीपल, आम, मदार, धतूरे बाउंड्री के बाहर लगा कनेर और अंदर से झाँकता लाल गुड़हल इन्हें रहना होगा इनके देवताओं के रहने तक; मेरी अम्मा कहती हैं खाली घर की दीवारें काटने को दौड़ती हैं काश की कोई खाली गाँव से निकाल लाता इन पुष्पों को

कुछ बरगद बड़े खेत में गले लग रहे थे और कौंध रही थी बिजली कुछ ढोल पीटे जा रहे थे मातमी धुनों में कुछ बाबा आ रहे थे घरों को वापस अर्थियों पर और गुलाब तोड़े जा रहे थे

बोगनवेलिया के झोंके रातरानी को गिराते हैं हालाँकि मेरी नाभि पूरी तरह सूख गई है अतः मैंने स्वीमिंगपूल में लगा दिए हैं कमल इससे पहले कि बरगद गाँव छोड़़ते पूरी तरह बोन्साई वाले बरगद मैंने घर में लगा दिए मैं ग्लोबल गाँव का शहरी नागरिक हूँ।

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