अंतर्मन के बरगद से तुम्हारी स्मृतियों की टहनियाँ काटते-काटते न जाने कितने वर्ष गुज़र गये
खिड़की से बाहर पृथ्वी की परिक्रमा करता चंद्रमा देख सोच रहा, कितनी समानता है स्मृतियों और चंद्रमा में
जिस प्रकार कालांतर से चंद्रमा करता है पृथ्वी की परिक्रमा, उसी प्रकार स्मृतियाँ करती हैं प्रेमियों की परिक्रमा,
प्रेम यथार्थ का वह सिनेमा घर है, जिसमें प्रवेश पश्चात कोई निकास नही
मेरे हृदय के किनारों पर बीते कल के पर्दे उठते-गिरते ही रहे
कभी राह में प्रेमी युगलों को देख यकायक स्मरण हो आता तुम्हारी सेमल सी हथेलियों का स्पर्श
कभी मध्यरात्रि में स्वप्नों की नाव ले जाती तुम्हारे गाँव की ओर, और आँख खुलते ही पाता समय को उपहास करते
एक रोज़ जब रेलगाड़ी रुकी तुम्हारे शहर के स्टेशन पर मैं औंधे मुँह जा गिरा था वेदना की पटरी पर
और आज मध्यरात्रि में इतने वर्षों बाद अचानक आए तुम्हारे संदेश ने स्मृतियों को दे दी है अनियंत्रित गति
तुम्हारे जीवन में अब कोई और है, तुम तक पहुँच सकने वाले मेरे कदम, अब जम चुके हैं असहायता से,
इसी दौरान सोच रहा कि कितने शून्य हो चुके हैं हम आत्मीय सम्बंधों की दुनिया में हम जिन मापदंडों को धुरी बना पूर्ण करते हैं क्षणभंगुर तृप्तियाँ अंततः उसी मापदंड का होते हैं शिकार और करते हैं प्रश्न कि इस तृप्ति में यह अतृप्ति क्यूँ ?
मैं जो एक ठूंठ से अधिक कुछ नही अक्षम हूँ कोई प्रतिक्रिया देने में और बस दौड़ रहा हूँ इस असमय आगमन से दूर
मनुष्य तैयार है प्रेम करने को, मनुष्य तैयार है प्रेम में रहने को, मनुष्य तैयार है प्रेम से भागने को, मनुष्य नही तैयार है तो सिर्फ़ प्रेम के परिणाम झेलने को,
परिणामस्वरूप टूटतें हैं स्मृतियों के बांध, कहीं भी-कभी भी,
द्वन्द की लहरें बहा ले जाती हैं हमें और फ़ेक देती हैं विरह के बंदरगाह पर
जहाँ से निकल पड़ते हैं हम जीवन समुद्र में अपनी-अपनी कवितायें ढूँढने अनुभूतियों की नाव पर सवार हो…
और निकालते हैं निष्कर्ष कि, प्रेम का सफल होना एक अपवाद है और प्रेम का असफल होना एक सिद्धांत ।।