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मेरे अंदर औरत । अभिजीत सिंह

El Jardin, Judithe Hernandez

खुल गयी देह देह में छिपे कमरों का भेद

कपड़ों का बे-तरतीब तौर से उतरना लिख दिया गया

हड़बड़ाहट लिख दी गयी उनके उतरने की मैं कहाँ पर गिरी नहीं लिखा गया

किसी दीवार की खूँटी पर या फ़र्श पर औंधे मुँह पड़े रहते हुए ही मेरा जन्म हुआ

दीवार ने पीठ थपथपाने मेज़ ने सिर पर घाव देने चाय के कप ने चेहरा जलाने

अस्तुरे ने होठों को काट लेने के अतिरिक्त

उस दूसरे जानवर का कोई काम नहीं किया

मेरा शरीर याददाश्त का प्रतिबिम्ब

मुझे याद सिर्फ़ दुष्कर्म है कि टाँके मेरी जीभ तक पहुँचे किसी भी घाव तक कभी नहीं आए

मेरा घाव दूर एक खाड़ी देश है जहाँ जाने के लिए नदियाँ भी वीज़ा मिलने के इंतज़ार में हैं

रक्तचाप लॉन्जरी पर पड़े दाग़ जैसा है

रोना एक अतिरिक्त काम है सिंक में पड़े बर्तन या राखदानी में अधजली उँगली पर रोने से दोनों को ही साफ़ करने का काम विलंबित होता जा रहा है

स्तन के पास एक दाना फूटने को है

अभी कुछ हफ़्तों का दर्द होगा जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए नहीं और ये मुआ पीठ के दर्द की बराबरी करने चला!

दुष्कर्म से गहरा घाव तो मौत भी नहीं है

मुझे रोज़ बक्सा कोसता है पूछता है “यह क्या रवय्या हुआ कि कहीं फूल जाते हैं गाल कहीं पैर कहीं गला कहीं आँख के पास पनप रही चर्बी”

“रोज़-रोज़ का क्या नाटक! रिहर्सल इतनी हो चुकी अब तक चुप-चाप सिर्फ़ देह बने रहने की आदत कैसे नहीं बनी”

“ये हाथ क्यों फैलकर कविता बन जाते हैं”

“ये काजल कब तक क्रमहीन यूलीसिस की तरह बह-बहकर बनती रहेगी किताब”

“क्या बिजली के नंगे तार में शब्द दौड़ रहे थे? क्यों बड़बड़ाते भटक रही हो कमरे में लेडी मैकबेथ की तरह”

“यह स्वप्न नहीं क्या देख पा रही हो”

“ख़ून के दाग वही हैं घबराओ मत सब वहीं है”

“जुड़े में फंसे तुम्हारे बाल वहीं हैं उखड़ती खाल को अंगूठे से जब बिस्तर के कोनों ने अनगिनत बार खदेड़ा तो तुम्हारी चीख़ तुम्हारी ख़राश बन कर कमरे के एकलौते आसमान आईने पर अपनी धूल छोड़ गई है”

“तुम्हारा मुँह सिकुड़ा पड़ा है अब तक वैसे का वैसा जैसा था शादी की पहली रात गुज़रने बाद सुबह की चादर पर और चादर अब भी वही है और देखो ख़ून के दाग वहीं हैं घबराओ मत सब वहीं है”

बक्सा इतना कुछ बोल गया और मैं फिर चुप रह गयी

मेरी कविता मेरा ही संवाद ना हो कर उत्पीड़न का दस्तावेज़ है

दस्तावेज़ के कटे-पिटे काग़ज़ को इस्त्री करते वक़्त एक गरमागरम छुअन अपने गले पर बैठे मच्छर को मारने पर महसूस करी

गला कोई भी पकड़ सकता है क्योंकि आवाज़ बंद कर देना केवल रिमोट तक पहुँचने भर की दूरी पर है

मज़बूत हाथ नहीं होते दुःख होता है

हमारे तुम्हारे घरों का दुःख जो हैवान को मुहय्या कराता है मज़बूत हाथ, लाल आँखें उंगलियाँ जिन में लार की बू आती हो शर्ट जो उतार फेंकने पर पैंट के उतरने का इंतज़ार करती हो जीभ जिस पर कैक्टस गहने जैसा पहन लिया जाता हो दाँत जो काट लेते होंगे माओं के भी हाथ!

मैं पेट भर के एक बिस्तर पर अपनी एड़ी जितना सोती हूँ बची हुई देह पलँग के निचले हिस्से में कुचली हुई पड़ी है

बचा हुआ बिस्तर चबा गया है मेरा मुँह कमरे के बाहर का बिस्तर और देह और दुःख

तुलनात्मक तौर पर विनम्र है

वही रोज़ का घूरे जाना धक्का खाना सॉरी कहे जाना ‘घर तक छोड़ दूँ आपको” वगेरह-वगेरह

दुनिया में रोबॉट बनाए जाने की शुरुआत औरत को वस्तु बनाए जाने से हुई होगी

हमसे सहमति नहीं ली जाती सवाल नहीं पूछा जाता

कपड़े पर कुछ लगा है तो छुआ गया

झाड़ दिया!

कपड़ा कैसा पहना है पूछा नहीं गया उतरवा लिया

और प्याज़ की तरह बस कपड़े ही उतारे जा रहे हैं

बस देह

और मेरी आत्मा उतना ही रहस्य जैसे ब्लैक होल

उतना ही सच भी

और मेरी आवाज़ उतनी ही विस्तृत जितना ब्रह्मांड जाना या अनजाना खोजा जा चुका हो जितना और जितना कहीं हो ही ना

पर है भी और सच भी

मेरी साँस टूटने पर पत्तियाँ टूट जाती हैं

जो रास्तों पर बारिश गिर कर जमी है वह मेरी अभिव्यक्ति है

पतझड़ मेरे नथुनों के छेद के पास पक रहे ज़ख़्म का दर्द है

मेरा पीला पड़ता शरीर क्या पता बढ़ा रहा हो ग्लोबल वार्मिंग!

अर्थहीन हो सकती हैं यह दलीलें पर दुनिया ज़रूर अलग होती अगर मैं कोई वस्तु नहीं मनुष्य होती

अगर कमरे अगर बसों अगर दफ़्तरों और सरों के ऑफ़िसों से कुछ भी अधिक होता मेरा होना तो आत्मा के ऊपर देह होने के लिए नहीं पड़ता रोना

तब शायद मेरा खुलना अलग होता

तब शायद जैसे बिग बैंग खुलने पर मिल गयी एक पृथ्वी

जैसे आँख खुलने पर मिलती है सुबह और लंचबॉक्स खुलने से मिलता है प्रेम

या मिलता है गुल्लक खुलने पर दोस्तों के साथ गली के नुक्कड़ तक जा कर आइस-क्रीम खा लेने का साहस

या जैसे किसी चाहने वाली के होंठ खुलें और मिल जाऊँ मैं अपनी स्वतंत्रता से बीच शहर

क्योंकि दो लड़कियाँ नहीं दो ख़्वाब खुल रहे हैं दो नींदें टूट रही हैं

और खुल जाते पेड़ों के तने पतझड़ को भीगने से बचाने

बहारें पत्तियों को फिर चिपका आतीं एक बूढ़े पेड़ पर जो आसमान तक जाता है

छाते खुलकर नहा लेते और बच्चे नहा लेते और पानी ख़ून ना होता

सिंधु घाटी से कोई ना खदेड़ा जाता और ना गोधरा होता ना फ़िलिस्तीन ना अफ़ग़ानिस्तान होता

अगर खुल पाते मेरे हाथ

तो मैं कितना कुछ बचा लेती टूटने से बस यही सोच रही हूँ टूटते पलँग पर पड़े सीलन भरी छत को निहारते

बस इतना ही कर पा रही हूँ अभी तो इतना ही कहूँगी

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